Monday, 19 February 2018

एक्सैस वुन्डि



श्लोक :-
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूध्न्र्याधायात्मन: प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥ १२॥

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
य: प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥ १३॥

अर्थ :-
(इन्द्रियोंके) सम्पूर्ण द्वारोंको रोककर मनका हृदयमें निरोध करके और अपने प्राणोंको मस्तकमें स्थापित करके  योगधारणामें सम्यक् प्रकारसे स्थित हुआ जो साधक ‘ॐ’ इस एक अक्षर ब्रह्मका (मानसिक) उच्चारण (और) मेरा स्मरण करता हुआ शरीरको छोडक़र जाता है, वह परम गतिको प्राप्त होता है।

पद छेद :-
सर्वद्वाराणि = (इन्द्रियोंके) सम्पूर्ण द्वारोंको
संयम्य = रोककर
मन: = मनका
हृदि = हृदयमें
निरुध्य = निरोध करके
च = और
आत्मन: = अपने
प्राणम् = प्राणोंको
मूध्र्नि = मस्तकमें
आधाय = स्थापित करके
योगधारणाम् =  योगधारणामें
आस्थित: = सम्यक् प्रकारसे स्थित हुआ
य: = जो साधक
ओम् = ‘ॐ’
इति = इस
एकाक्षरम् = एक अक्षर
ब्रह्म = ब्रह्मका
व्याहरन् = (मानसिक) उच्चारण (और)
माम् = मेरा
अनुस्मरन् = स्मरण करता हुआ
देहम् = शरीरको
त्यजन् = छोडक़र
प्रयाति = जाता है,
स: = वह
पराम् = परम
गतिम् = गतिको
याति = प्राप्त होता है।

‘सर्वद्वाराणि संयम्य’ — (अन्तसमयमें) सम्पूर्ण इन्द्रियोंके द्वारोंका संयम कर ले अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध—इन पाँचों विषयोंसे श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और नासिका—इन पाँचों ज्ञानेन्द्रियोंको तथा बोलना, ग्रहण करना, गमन करना, मूत्र-त्याग और मल-त्याग— इन पाँचों क्रियाओंसे वाणी, हाथ, चरण, उपस्थ और गुदा—इन पाँचों कर्मेन्द्रियोंको सर्वथा हटा ले। इससे इन्द्रियाँ अपने स्थानमें रहेंगी।

'मनो हृदि निरुध्य च’— मनका हृदयमें ही निरोध कर ले अर्थात् मनको विषयोंकी तरफ न जाने दे। इससे मन अपने स्थान (हृदय) में रहेगा।

'मूध्न्र्याधायात्मन: प्राणम् ’— प्राणोंको मस्तकमें धारण कर ले अर्थात् प्राणोंपर अपना अधिकार प्राप्त करके दसवें द्वार—ब्रह्मरन्ध्रमें प्राणोंको रोक ले।

‘आस्थितो योगधारणाम् ’ — इस प्रकार योगधारणामें स्थित हो जाय। इन्द्रियोंसे कुछ भी चेष्टा न करना, मनसे भी संकल्प-विकल्प न करना और प्राणोंपर पूरा अधिकार प्राप्त करना ही योगधारणामें स्थित होना है।

'ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्’— इसके बाद एक अक्षर ब्रह्म ‘ॐ’ (प्रणव) का मानसिक उच्चारण करे और मेरा अर्थात् निर्गुण-निराकार परम अक्षर ब्रह्मका (जिसका वर्णन इसी अध्यायके तीसरे श्लोकमें हुआ है) स्मरण करे*। सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदिमें एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा ही सत्तारूपसे परिपूर्ण हैं — ऐसी धारणा करना ही मेरा स्मरण है।

‘य: प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ’— उपर्युक्त प्रकारसे निर्गुण-निराकारका स्मरण करते हुए जो देहका त्याग करता है अर्थात् दसवें द्वारसे प्राणोंको छोड़ता है वह परमगतिको अर्थात् निर्गुण-निराकार परमात्माको प्राप्त होता है।


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