*नास्तिक मत खण्डन*
*____________________*
*नास्तिक*
यदि वह ईश्वर अनेक नहीं तो वह व्यापक है या एक देशी?
*आस्तिक*
वह सर्वव्यापक है एकदेशी नहीं।यदि एक देशी होता तो अनेक विध संसार का पालन पोषण एवं संरक्षण कैसे कर सकता ?
*नास्तिक*
यदि वह सर्वव्यापक है तो पुनः दिखाई क्यों नहीं देता।
*आस्तिक*
दिखाई न देने के कई कारण होते हैं जैसे सांख्या-कारिका में कहा है-
*अतिदूरात सामीप्यादिन्द्रियघातान्मनो ऽनवस्थनात् ।*
*सौक्ष्म्याद् व्यवधानादभिभवाद् समानाभिहाराच्च ।*
(१) दिखाई न देने का प्रथम कारण है अति दूर होना जैसे लन्दन या अमेरिका दूर होने से दिखाई नहीं देते परन्तु दिखाई न देने पर भी उनकी सत्ता से इन्कार नहीं हो सकता।
(२) दूसरा कारण है अति समीप होना, अति समीप होने से भी वस्तु दिखाई नहीं देती जैसे आंख की लाली या आंख का सुरमा आंख के अति समीप होने पर भी दिखाई नहीं देते। अथवा पुस्तक आँख के अति समीप हो तो उसके अक्षर दिखाई नहीं देते।
(३) इन्द्रिय के विकृत या खराब होने पर भी कोई वस्तु दिखाई नहीं देती जैसे आंख दुखने पर या आंख के फूट जाने पर यदि कोई अन्धा कहे कि सूर्य चन्द्रादि की कोई सत्ता नहीं,तो क्या यह ठीक माना जायगा ।
(४) अति सूक्ष्म होने पर भी कोई वस्तु दिखाई नहीं देती, जैसे आत्मा,मन,बुद्धि,परमाणु,भूख,प्यिस,सुख-दुःख,ईर्ष्या,द्वेष आदि।
(५) मन के अस्थिर होने पर भी कोई वस्तु दिखाई नहीं देती जैसे कोई व्यक्ति सामने से होकर निकल जाय, तो उसके विषय में पूछने पर उत्तर मिलता है कि मेरा ध्यान उस ओर नहीं था।इस लिये मैं नहीं कह सकता कि वह यहाँ से निकला है या नहीं।
(६) ओट में रखी या बीच में किसी वस्तु का पर्दा होने से भी वस्तु दिखाई नहीं देती जैसे दीवार के पीछे रखी वस्तु या ट्रंक के अन्दर रखी वस्तु ।
(७) समान वस्तुओं के सम्मिश्रण हो जाने या परस्पर खलत मलत हो जाने पर भी वस्तु दिखाई नहीं देती जैसे दूध में पानी,तिलों में तेल,दही में मक्खन,लकड़ी में आग।इसी प्रकार परमात्मा सब वस्तुओं में व्यापक होने पर भी अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण आंखों से दिखाई नहीं देता।परन्तु ––
जिस तरह अग्नि का शोला संग में मौजूद है।
इस तरह परमात्मा हर रंग में मौजूद है।
(८) अभिभव से अर्थात् दब जाने पर भी कोई वस्तु दिखाई नहीं देती यथा दिन को तारे सूर्य के प्रकाश में दब जाने के कारण दिखाई नहीं देते अथवा आग में पड़ा लोहा अग्नि के प्रभाव से दिखाई नहीं देता।परन्तु ज्ञान की आंख से वह दिखाई देते हैं―ऐसे ही परमात्मा के दर्शन के लिए भी अन्दर की आंख की आवश्यकता है।किसी ने ठीक कहा है कि―
*कहाँ ढूंढ़ा उसे किस जा न पाया,कोई पर ढूंढने वाला न पाया।*
*उसे पाना नहीं आसां कि हमने,न जब तक आप को खोया न पाया।*
*नास्तिक*
यदि वह सब जगह सर्वत्र व्यापक है तब तो मल-मूत्र,गन्दगी,कूड़े-करकट में भी उसका वास मानना होगा,इस प्रकार तो दुर्गन्ध से उसकी बड़ी दुर्गति होगी।
*आस्तिक*
आपका यह विचार ठीक नहीं क्योंकि सुगन्ध दुर्गन्ध इन्द्रियों द्वारा प्रतीत होती है और परमात्मा इन्द्रियातीत अर्थात् इन्द्रियों से रहित है इसलिये उसे सुगन्ध दुर्गन्ध नहीं आती।
दूसरे जो वस्तु अपने से भिन्न दूसरे स्थान पर या अपने से पृथक बाहर दूर हो उससे सुगन्ध दुर्गन्ध आती है जो वस्तु अपने ही अन्दर हो उससे सुगन्ध दुर्गन्ध नहीं आती। जैसे पाखाना अपने अन्दर हो तो दुर्गन्ध नहीं आती परन्तु बाहर पड़ा हो तो दुर्गन्ध आती है ।इसी प्रकार यह सारा संसार और उस की सब वस्तुएँ भी ईश्वर के भीतर विद्यमान हैं इसलिये उसे सुगन्ध दुर्गन्ध नहीं आती ,न ही उस इनका कोई प्रभाव होता है ,कठोपनिषद् में ठीक कहा है―
*सूर्यो यथो सर्वलोकस्य चक्षुनं लिप्यते चाक्षुषै र्बाह्यदोषैः,*
*एकस्तथा सर्व भूतान्तरात्मा न लिप्यते लोक दुःखेन बाह्य ।*―(कठो अ २-वल्ली २-श्लोक ११)
अर्थात्―जिस प्रकार सूर्य सब संसार की चक्षु है,परन्तु चक्षु के बाह्या दोषों से प्रभावित नहीं होता, इसी प्रकार सब प्राणियों का अन्तरात्मा लोक में होने वाले दुःखों से लिप्त नहीं होता क्योंकि वह सब में रहता और उसमें सब रहता है।संसार में रहते हुए भी वह सबसे बाह्य अर्थात् सब संसार से पृथक है,अर्थात् लिप्त नहीं है अलिप्त है।
*नास्तिक*
जब वह स्वयं इन्द्रियरहित तथा इन्द्रियों से न जानने योग्य है तो उसका ज्ञान होना असम्भव है,पुनः जानने का प्रयत्न व्यर्थ है ?
*आस्तिक*
उसके जानने का प्रयत्न करना व्यर्थ नहीं क्योंकि ईश्वर की सत्ता का उसके विचित्र ब्रह्माण्ड और उसमें विचित्र नियमानुसार कार्यों को देखकर बुद्धिमान,ज्ञानी,तपस्वी भलीभांति अनुभव करते हैं।इसके अतिरिक्त प्रभु प्राप्ति का साधन इन्द्रियां नहीं अपितु जीवात्मा है, योगाभ्यास आदि क्रियाओं द्वारा जीवात्मा उनका प्रत्यक्ष अनुभव करता है तथा आनन्द का लाभ करता है―कठोपनिषद् में ठीक कहा है―
*एको वशी सर्व भूतान्तरात्मा, एकं रुपं बहुधा यः करोति,*
*तमात्मास्थं येऽनु पश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतंनेतरेषाम् ।*
―(कठो अ २. वल्ली रचो १२)
अर्थात्―वह एक,सब को वश में रखने वाला,सब प्राणियों की अन्तरात्मा में स्थित है अपनी आत्मा में स्थित उस परमात्मा का जो ज्ञानीजन जन दर्शन लाभ करते हैं वे परमानन्द को प्राप्त करते हैं।
*नास्तिक*
ईश्वर को मानने से मनुष्य की स्वतन्त्रता जाती रहती है,इसलिये मानना व्यर्थ है ?
*आस्तिक*
ईश्वर को मानने तथा उसकी उपासना करने का अन्तिम फल मुक्ति है।मुक्ति स्वतन्त्रता का केन्द्र है जहाँ सब प्रकार के बन्धन टूट जाते हैं।अतः ईश्वर के मानने से मनुष्य की स्वतन्त्रता के साथ दुःखों की समाप्ति तथा आनन्द की प्राप्ति भी होती है इसलिए उसका मानना तथा जानना आवश्यक है, व्यर्थ नहीं।
*नास्तिक―*
ईश्वर को अज्ञेय अर्थात् न जानने योग्य कहा है तो उसके जानने का परिश्रम करना व्यर्थ है ।
*आस्तिक*
सृष्टि और उसके विविध पदार्थों तथा उसमें काम कर रहे अनेक विध नियमों को देखकर उसके रचयिता का बोध सरलता से हो जाता है।जैसे आकाश,वायु,अणु,परमाणु आदि इन्द्रिय रहित हैं।परन्तु उनका निश्चय बुद्धि से हो जाता है,इसी प्रकार शुद्धान्तःकरण द्वारा प्रभु का ज्ञान हो जाता है।इसमें किसी प्रकार की कोई बाधा नहीं, परिश्रम की आवश्यकता है।
*नास्तिक*
ईश्वर को सगुण कहा गया है प्रत्येक सगुण वस्तु नाशवान होती है।इसलिये ईश्वर को भी नाशवान मानना पड़ेगा ।
*आस्तिक*
प्रत्येक सगुण वस्तु नाशवान् होती है यह कोई नियम नहीं,जब सत्व,राजस्,तमस् गुणवाली प्रकृति ही नाशवान् नहीं।
तो ईश्वर सगुण होने से कैसे नाशवान् माना जा सकता है।ईश्वर न्याय,दया,ज्ञानादि गुणों से सगुण और अजर,अमर,अजन्मा आदि होने से निर्गुण कहाता है
ईश्वर है या नहीं?
संसार में ईश्वर है मानने वाले बहुत लोग हैं, परन्तु नास्तिक लोगों का मानना है कि ईश्वर नाम की कोई सत्ता या शक्ति नहीं है और न उसकी कोई आवश्यकता है।
इस सोच का आधार है कि ईश्वर किसी को दिखाई नहीं पड़ता है। ईश्वर को न कोई देख पाया है, न छू सका है, न सुन सका हैं, न ही सूंघ सका।
*प्र. - वह इन पाँचों इन्द्रियों से भी नहीं दिखाई देता। अतः वह ईश्वर जो आप कहते हैं। वह नहीं हो सकता।*
उ.- इन पाँच इन्द्रियों के अलावा मन और बुद्धि भी है।
*प्र. - अरे भाई! आज तक आपने कभी सुना है कि यह व्यक्ति देखो मन से अथवा बुद्धि से देखता है।*
उ.- आप जिसे ‘‘देखना’’ मानते हो, वही ‘‘केवल देखना’’ नहीं होता, देखना का अर्थ जानना भी होता है। अब इसे उदाहरण से देखते हैं। जब कभी हम बातों को भूल जाते हैं, तब आँखें बन्द कर विचार करते हैं और झट से याद आने पर कहते हैं- मैंने विचार कर देखा। वास्तव में वही सही है।
एक प्रयोग और देखिये- अरे भाई! आप एक बार अनुमान करके तो देखो, आपको पता लगेगा। यहाँ भी ‘‘देखो’’ शब्द का प्रयोग ‘‘जानो’’ अर्थ में ही हुआ है। इससे पता चलता है कि बहुत वस्तुएँ ‘‘मन एवं बुद्धि’’ से भी जानी जाती है। देखना का प्रयोग जानने के अर्थ में भी होता है न कि मात्र आँखों से प्रत्यक्ष में।
*प्र. - तो मन से या बुद्धि से तो जाना जाना चाहिये परन्तु ऐसा भी तो नहीं।*
उ.- बुद्धि से तो अनुमान कर ही सकते हैं। बिना अनुमान किये ज्ञान नहीं हो सकता। अविद्या दूर करना चाहिये। जब अविद्या का नाश हो जावेगा तब मन के माध्यम से आत्मा तक और आत्मा से ईश्वर तक पहुँच सकेंगे।और जैसे भोजन सामने रखा है, पर उसे ग्रहण करने का प्रयत्न यदि न किया जावे, तो भूख नहीं हट सकती। उसी प्रकार ईश्वर को जानने के लिए प्रयत्न की आवश्यकता है।
*प्र. - वह प्रयास किस प्रकार से करें?*
उ.- जैसे आप धुएँ को देखकर अग्नि का अनुमान अथवा पुत्र को देखकर जन्मदाता का अनुमान करते हैं और जान लेते हैं कि यह ज्ञान सही होता है। जहाँ-जहाँ धुआँ होता है, वहाँ-वहाँ आग होती है।
इसी प्रकार- जो-जो कार्य होता है, उसका कारण अवश्य होता है। और कोई भी कार्य है तो वह नष्ट भी होता है। आपने किसी घर को बना देखा, तो आपने अनुमान किया कि इसका बनाने वाला कोई अवश्य ही है। यह सृष्टि एक कार्य है क्योंकी यहां जो चीज बनाई गई वह नष्ट होती भी दिखाई पड़ती है। कार्य का करने वाला भी आवश्यक है, अब वही कौन है, यह भी अनुमान से सिद्ध होता है कि इस संसार को निर्माण करने वाला एक स्थान विशेष पर रहने वाला या मूर्ख नहीं हो सकता, अतः ईश्वर का अनुमान होता है।
*प्. - यह संसार तो अपने आप ही बना है।*
उ.- अब आप पहले सिद्धान्त के विरुद्ध जा रहे हैं।पहले आपने स्वीकार किया था कि जो बना होता है, उसे बनाने वाला होता है।
*प्र. - क्योंकि यदि ईश्वर ने भी यदि इस संसार को बनाया है, यह कहे तो प्रश्न होगा कि ईश्वर को किसने बनाया?*
उ.- जो कार्य होता है, वह नष्ट होता रहता है और जो नष्ट होता हुआ, कोई भी कार्य दिखाई पड़ता है, उसको बनाने वाला कोई अवश्य ही होता है और ईश्वर नष्ट नहीं होता। अतः उसे बनाने वाला कोई भी नहीं हुआ, न है और न होगा।
*प्र. - तो वह ईश्वर कहाँ है?*
उ.- वह सर्वत्र कण-कण में है। तभी तो उसने इतनी बड़ी रचना की है एक स्थान पर बैठकर ऐसा करना सभव नहीं, और वह सब जगह है, अतः वह सब जानता है। और केवल सृष्टी केवल बना दी गई है ऐसा नहीं इसकी व्यवस्था यानि रखरखाव भी आवश्यक है और व्यवस्था का काम यदि ईश्वर एक स्थानपर बैठकर करे तो जहां वह नहीं रहेगा वहां की व्यवस्था कैसे चलेगी? अतः ईश्वर सब जगह है।
*प्र. - तब तो प्राकृतिक आपदाएँ नहीं आनी चाहिये। क्योंकि ईश्वर सब जगह पर है, अतः उसे ध्यान देना चाहिये कि ये आपदाएँ लोगों को कष्ट पहुँचायेगी उनका कार्य करना भी व्यर्थ होगा, उसे तो इस प्रकार का निर्माण करना चाहिये कि कोई भी आपदाएँ आने ही न पावें।*
उ.- यह सब ईश्वर की व्यवस्था के अनुसार होता है या नियमानुसार कहो। क्योंकि ईश्वर को कर्मफल भी तो देने हैं। अतः इसमें हमारे कर्म ही कारण होते हैं। इससे अतिरिक्त, यह प्रदूषण करने का प्रभाव या परिणाम भी हो सकता है। जैसे कोई मनुष्य एक यन्त्र बनाता है और उसमें विद्युत् को सहन करने की क्षमता एक क्षमता तक ही होती है। यदि उसमें कोई अधिक विद्युत् दे देवें, तो वह जलकर नष्ट ही होगा। इसी प्रकार यह पृथ्वी भी एक सीमा तक ही सहन कर सकती है या सह सकती है। उसके पश्श्चात् जो होता है, वह हम देखते ही हैं। यदि व्यवस्था को कोई अव्यवस्था रूप देना चाहे, तो उसमें ईश्वर को क्या दोष?
*प्र. - यदि ईश्वर है और आप उसे मानते हैं, तो बताइये कि आज पूरे विश्व में इतने दुष्टकर्म हो रहे हैं परन्तु ईश्वर तो कुछ भी नहीं करता?*
उ.- ईश्वर को क्या करना चाहिये, आप ही बताइये?
*प्र. - उसे शरीर धारण करना चाहिये और दुष्टों की समाप्ति कर देनी चाहिये।*
उ.- यदि वह शरीर धारण करे तो विश्वमें अन्य स्थानों का ध्यान कौन देगा? उनके कर्मों का ज्ञान कैसे होगा और ज्ञान नहीं होगा तो उनका फल भी नहीं दे सकेगा।
*प्र. - तो सब जगह पर होते हुए, कुछ भी तो नहीं करता?*
उ.- आपको कैसे पता कि वो कुछ भी नहीं करता?
*प्र. - क्या करता है, बताईये?*
उ.- वही तो सभी के कर्मों का उचित फल देता है। ये अलग-अलग प्रकार के जानवर हैं, वे सब इसी के व्यवस्था के अन्तर्गत है और लोग कर्म करने में स्वतन्त्र है और ईश्वर ने लोगों को स्वतंत्र छोड़ रखा है केवल कर्मनुसार फल देना निश्चित कर रखा है।
*प्र. - ईश्वर कैसे मिलेगा?*
उ.- यह जो हम लोग पाप कर्म करते हैं, उसके कारण को (मिथ्या ज्ञान) को हटा दें तो वह परमात्मा प्राप्त होता है।
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*नास्तिक*
यदि वह ईश्वर अनेक नहीं तो वह व्यापक है या एक देशी?
*आस्तिक*
वह सर्वव्यापक है एकदेशी नहीं।यदि एक देशी होता तो अनेक विध संसार का पालन पोषण एवं संरक्षण कैसे कर सकता ?
*नास्तिक*
यदि वह सर्वव्यापक है तो पुनः दिखाई क्यों नहीं देता।
*आस्तिक*
दिखाई न देने के कई कारण होते हैं जैसे सांख्या-कारिका में कहा है-
*अतिदूरात सामीप्यादिन्द्रियघातान्मनो ऽनवस्थनात् ।*
*सौक्ष्म्याद् व्यवधानादभिभवाद् समानाभिहाराच्च ।*
(१) दिखाई न देने का प्रथम कारण है अति दूर होना जैसे लन्दन या अमेरिका दूर होने से दिखाई नहीं देते परन्तु दिखाई न देने पर भी उनकी सत्ता से इन्कार नहीं हो सकता।
(२) दूसरा कारण है अति समीप होना, अति समीप होने से भी वस्तु दिखाई नहीं देती जैसे आंख की लाली या आंख का सुरमा आंख के अति समीप होने पर भी दिखाई नहीं देते। अथवा पुस्तक आँख के अति समीप हो तो उसके अक्षर दिखाई नहीं देते।
(३) इन्द्रिय के विकृत या खराब होने पर भी कोई वस्तु दिखाई नहीं देती जैसे आंख दुखने पर या आंख के फूट जाने पर यदि कोई अन्धा कहे कि सूर्य चन्द्रादि की कोई सत्ता नहीं,तो क्या यह ठीक माना जायगा ।
(४) अति सूक्ष्म होने पर भी कोई वस्तु दिखाई नहीं देती, जैसे आत्मा,मन,बुद्धि,परमाणु,भूख,प्यिस,सुख-दुःख,ईर्ष्या,द्वेष आदि।
(५) मन के अस्थिर होने पर भी कोई वस्तु दिखाई नहीं देती जैसे कोई व्यक्ति सामने से होकर निकल जाय, तो उसके विषय में पूछने पर उत्तर मिलता है कि मेरा ध्यान उस ओर नहीं था।इस लिये मैं नहीं कह सकता कि वह यहाँ से निकला है या नहीं।
(६) ओट में रखी या बीच में किसी वस्तु का पर्दा होने से भी वस्तु दिखाई नहीं देती जैसे दीवार के पीछे रखी वस्तु या ट्रंक के अन्दर रखी वस्तु ।
(७) समान वस्तुओं के सम्मिश्रण हो जाने या परस्पर खलत मलत हो जाने पर भी वस्तु दिखाई नहीं देती जैसे दूध में पानी,तिलों में तेल,दही में मक्खन,लकड़ी में आग।इसी प्रकार परमात्मा सब वस्तुओं में व्यापक होने पर भी अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण आंखों से दिखाई नहीं देता।परन्तु ––
जिस तरह अग्नि का शोला संग में मौजूद है।
इस तरह परमात्मा हर रंग में मौजूद है।
(८) अभिभव से अर्थात् दब जाने पर भी कोई वस्तु दिखाई नहीं देती यथा दिन को तारे सूर्य के प्रकाश में दब जाने के कारण दिखाई नहीं देते अथवा आग में पड़ा लोहा अग्नि के प्रभाव से दिखाई नहीं देता।परन्तु ज्ञान की आंख से वह दिखाई देते हैं―ऐसे ही परमात्मा के दर्शन के लिए भी अन्दर की आंख की आवश्यकता है।किसी ने ठीक कहा है कि―
*कहाँ ढूंढ़ा उसे किस जा न पाया,कोई पर ढूंढने वाला न पाया।*
*उसे पाना नहीं आसां कि हमने,न जब तक आप को खोया न पाया।*
*नास्तिक*
यदि वह सब जगह सर्वत्र व्यापक है तब तो मल-मूत्र,गन्दगी,कूड़े-करकट में भी उसका वास मानना होगा,इस प्रकार तो दुर्गन्ध से उसकी बड़ी दुर्गति होगी।
*आस्तिक*
आपका यह विचार ठीक नहीं क्योंकि सुगन्ध दुर्गन्ध इन्द्रियों द्वारा प्रतीत होती है और परमात्मा इन्द्रियातीत अर्थात् इन्द्रियों से रहित है इसलिये उसे सुगन्ध दुर्गन्ध नहीं आती।
दूसरे जो वस्तु अपने से भिन्न दूसरे स्थान पर या अपने से पृथक बाहर दूर हो उससे सुगन्ध दुर्गन्ध आती है जो वस्तु अपने ही अन्दर हो उससे सुगन्ध दुर्गन्ध नहीं आती। जैसे पाखाना अपने अन्दर हो तो दुर्गन्ध नहीं आती परन्तु बाहर पड़ा हो तो दुर्गन्ध आती है ।इसी प्रकार यह सारा संसार और उस की सब वस्तुएँ भी ईश्वर के भीतर विद्यमान हैं इसलिये उसे सुगन्ध दुर्गन्ध नहीं आती ,न ही उस इनका कोई प्रभाव होता है ,कठोपनिषद् में ठीक कहा है―
*सूर्यो यथो सर्वलोकस्य चक्षुनं लिप्यते चाक्षुषै र्बाह्यदोषैः,*
*एकस्तथा सर्व भूतान्तरात्मा न लिप्यते लोक दुःखेन बाह्य ।*―(कठो अ २-वल्ली २-श्लोक ११)
अर्थात्―जिस प्रकार सूर्य सब संसार की चक्षु है,परन्तु चक्षु के बाह्या दोषों से प्रभावित नहीं होता, इसी प्रकार सब प्राणियों का अन्तरात्मा लोक में होने वाले दुःखों से लिप्त नहीं होता क्योंकि वह सब में रहता और उसमें सब रहता है।संसार में रहते हुए भी वह सबसे बाह्य अर्थात् सब संसार से पृथक है,अर्थात् लिप्त नहीं है अलिप्त है।
*नास्तिक*
जब वह स्वयं इन्द्रियरहित तथा इन्द्रियों से न जानने योग्य है तो उसका ज्ञान होना असम्भव है,पुनः जानने का प्रयत्न व्यर्थ है ?
*आस्तिक*
उसके जानने का प्रयत्न करना व्यर्थ नहीं क्योंकि ईश्वर की सत्ता का उसके विचित्र ब्रह्माण्ड और उसमें विचित्र नियमानुसार कार्यों को देखकर बुद्धिमान,ज्ञानी,तपस्वी भलीभांति अनुभव करते हैं।इसके अतिरिक्त प्रभु प्राप्ति का साधन इन्द्रियां नहीं अपितु जीवात्मा है, योगाभ्यास आदि क्रियाओं द्वारा जीवात्मा उनका प्रत्यक्ष अनुभव करता है तथा आनन्द का लाभ करता है―कठोपनिषद् में ठीक कहा है―
*एको वशी सर्व भूतान्तरात्मा, एकं रुपं बहुधा यः करोति,*
*तमात्मास्थं येऽनु पश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतंनेतरेषाम् ।*
―(कठो अ २. वल्ली रचो १२)
अर्थात्―वह एक,सब को वश में रखने वाला,सब प्राणियों की अन्तरात्मा में स्थित है अपनी आत्मा में स्थित उस परमात्मा का जो ज्ञानीजन जन दर्शन लाभ करते हैं वे परमानन्द को प्राप्त करते हैं।
*नास्तिक*
ईश्वर को मानने से मनुष्य की स्वतन्त्रता जाती रहती है,इसलिये मानना व्यर्थ है ?
*आस्तिक*
ईश्वर को मानने तथा उसकी उपासना करने का अन्तिम फल मुक्ति है।मुक्ति स्वतन्त्रता का केन्द्र है जहाँ सब प्रकार के बन्धन टूट जाते हैं।अतः ईश्वर के मानने से मनुष्य की स्वतन्त्रता के साथ दुःखों की समाप्ति तथा आनन्द की प्राप्ति भी होती है इसलिए उसका मानना तथा जानना आवश्यक है, व्यर्थ नहीं।
*नास्तिक―*
ईश्वर को अज्ञेय अर्थात् न जानने योग्य कहा है तो उसके जानने का परिश्रम करना व्यर्थ है ।
*आस्तिक*
सृष्टि और उसके विविध पदार्थों तथा उसमें काम कर रहे अनेक विध नियमों को देखकर उसके रचयिता का बोध सरलता से हो जाता है।जैसे आकाश,वायु,अणु,परमाणु आदि इन्द्रिय रहित हैं।परन्तु उनका निश्चय बुद्धि से हो जाता है,इसी प्रकार शुद्धान्तःकरण द्वारा प्रभु का ज्ञान हो जाता है।इसमें किसी प्रकार की कोई बाधा नहीं, परिश्रम की आवश्यकता है।
*नास्तिक*
ईश्वर को सगुण कहा गया है प्रत्येक सगुण वस्तु नाशवान होती है।इसलिये ईश्वर को भी नाशवान मानना पड़ेगा ।
*आस्तिक*
प्रत्येक सगुण वस्तु नाशवान् होती है यह कोई नियम नहीं,जब सत्व,राजस्,तमस् गुणवाली प्रकृति ही नाशवान् नहीं।
तो ईश्वर सगुण होने से कैसे नाशवान् माना जा सकता है।ईश्वर न्याय,दया,ज्ञानादि गुणों से सगुण और अजर,अमर,अजन्मा आदि होने से निर्गुण कहाता है
ईश्वर है या नहीं?
संसार में ईश्वर है मानने वाले बहुत लोग हैं, परन्तु नास्तिक लोगों का मानना है कि ईश्वर नाम की कोई सत्ता या शक्ति नहीं है और न उसकी कोई आवश्यकता है।
इस सोच का आधार है कि ईश्वर किसी को दिखाई नहीं पड़ता है। ईश्वर को न कोई देख पाया है, न छू सका है, न सुन सका हैं, न ही सूंघ सका।
*प्र. - वह इन पाँचों इन्द्रियों से भी नहीं दिखाई देता। अतः वह ईश्वर जो आप कहते हैं। वह नहीं हो सकता।*
उ.- इन पाँच इन्द्रियों के अलावा मन और बुद्धि भी है।
*प्र. - अरे भाई! आज तक आपने कभी सुना है कि यह व्यक्ति देखो मन से अथवा बुद्धि से देखता है।*
उ.- आप जिसे ‘‘देखना’’ मानते हो, वही ‘‘केवल देखना’’ नहीं होता, देखना का अर्थ जानना भी होता है। अब इसे उदाहरण से देखते हैं। जब कभी हम बातों को भूल जाते हैं, तब आँखें बन्द कर विचार करते हैं और झट से याद आने पर कहते हैं- मैंने विचार कर देखा। वास्तव में वही सही है।
एक प्रयोग और देखिये- अरे भाई! आप एक बार अनुमान करके तो देखो, आपको पता लगेगा। यहाँ भी ‘‘देखो’’ शब्द का प्रयोग ‘‘जानो’’ अर्थ में ही हुआ है। इससे पता चलता है कि बहुत वस्तुएँ ‘‘मन एवं बुद्धि’’ से भी जानी जाती है। देखना का प्रयोग जानने के अर्थ में भी होता है न कि मात्र आँखों से प्रत्यक्ष में।
*प्र. - तो मन से या बुद्धि से तो जाना जाना चाहिये परन्तु ऐसा भी तो नहीं।*
उ.- बुद्धि से तो अनुमान कर ही सकते हैं। बिना अनुमान किये ज्ञान नहीं हो सकता। अविद्या दूर करना चाहिये। जब अविद्या का नाश हो जावेगा तब मन के माध्यम से आत्मा तक और आत्मा से ईश्वर तक पहुँच सकेंगे।और जैसे भोजन सामने रखा है, पर उसे ग्रहण करने का प्रयत्न यदि न किया जावे, तो भूख नहीं हट सकती। उसी प्रकार ईश्वर को जानने के लिए प्रयत्न की आवश्यकता है।
*प्र. - वह प्रयास किस प्रकार से करें?*
उ.- जैसे आप धुएँ को देखकर अग्नि का अनुमान अथवा पुत्र को देखकर जन्मदाता का अनुमान करते हैं और जान लेते हैं कि यह ज्ञान सही होता है। जहाँ-जहाँ धुआँ होता है, वहाँ-वहाँ आग होती है।
इसी प्रकार- जो-जो कार्य होता है, उसका कारण अवश्य होता है। और कोई भी कार्य है तो वह नष्ट भी होता है। आपने किसी घर को बना देखा, तो आपने अनुमान किया कि इसका बनाने वाला कोई अवश्य ही है। यह सृष्टि एक कार्य है क्योंकी यहां जो चीज बनाई गई वह नष्ट होती भी दिखाई पड़ती है। कार्य का करने वाला भी आवश्यक है, अब वही कौन है, यह भी अनुमान से सिद्ध होता है कि इस संसार को निर्माण करने वाला एक स्थान विशेष पर रहने वाला या मूर्ख नहीं हो सकता, अतः ईश्वर का अनुमान होता है।
*प्. - यह संसार तो अपने आप ही बना है।*
उ.- अब आप पहले सिद्धान्त के विरुद्ध जा रहे हैं।पहले आपने स्वीकार किया था कि जो बना होता है, उसे बनाने वाला होता है।
*प्र. - क्योंकि यदि ईश्वर ने भी यदि इस संसार को बनाया है, यह कहे तो प्रश्न होगा कि ईश्वर को किसने बनाया?*
उ.- जो कार्य होता है, वह नष्ट होता रहता है और जो नष्ट होता हुआ, कोई भी कार्य दिखाई पड़ता है, उसको बनाने वाला कोई अवश्य ही होता है और ईश्वर नष्ट नहीं होता। अतः उसे बनाने वाला कोई भी नहीं हुआ, न है और न होगा।
*प्र. - तो वह ईश्वर कहाँ है?*
उ.- वह सर्वत्र कण-कण में है। तभी तो उसने इतनी बड़ी रचना की है एक स्थान पर बैठकर ऐसा करना सभव नहीं, और वह सब जगह है, अतः वह सब जानता है। और केवल सृष्टी केवल बना दी गई है ऐसा नहीं इसकी व्यवस्था यानि रखरखाव भी आवश्यक है और व्यवस्था का काम यदि ईश्वर एक स्थानपर बैठकर करे तो जहां वह नहीं रहेगा वहां की व्यवस्था कैसे चलेगी? अतः ईश्वर सब जगह है।
*प्र. - तब तो प्राकृतिक आपदाएँ नहीं आनी चाहिये। क्योंकि ईश्वर सब जगह पर है, अतः उसे ध्यान देना चाहिये कि ये आपदाएँ लोगों को कष्ट पहुँचायेगी उनका कार्य करना भी व्यर्थ होगा, उसे तो इस प्रकार का निर्माण करना चाहिये कि कोई भी आपदाएँ आने ही न पावें।*
उ.- यह सब ईश्वर की व्यवस्था के अनुसार होता है या नियमानुसार कहो। क्योंकि ईश्वर को कर्मफल भी तो देने हैं। अतः इसमें हमारे कर्म ही कारण होते हैं। इससे अतिरिक्त, यह प्रदूषण करने का प्रभाव या परिणाम भी हो सकता है। जैसे कोई मनुष्य एक यन्त्र बनाता है और उसमें विद्युत् को सहन करने की क्षमता एक क्षमता तक ही होती है। यदि उसमें कोई अधिक विद्युत् दे देवें, तो वह जलकर नष्ट ही होगा। इसी प्रकार यह पृथ्वी भी एक सीमा तक ही सहन कर सकती है या सह सकती है। उसके पश्श्चात् जो होता है, वह हम देखते ही हैं। यदि व्यवस्था को कोई अव्यवस्था रूप देना चाहे, तो उसमें ईश्वर को क्या दोष?
*प्र. - यदि ईश्वर है और आप उसे मानते हैं, तो बताइये कि आज पूरे विश्व में इतने दुष्टकर्म हो रहे हैं परन्तु ईश्वर तो कुछ भी नहीं करता?*
उ.- ईश्वर को क्या करना चाहिये, आप ही बताइये?
*प्र. - उसे शरीर धारण करना चाहिये और दुष्टों की समाप्ति कर देनी चाहिये।*
उ.- यदि वह शरीर धारण करे तो विश्वमें अन्य स्थानों का ध्यान कौन देगा? उनके कर्मों का ज्ञान कैसे होगा और ज्ञान नहीं होगा तो उनका फल भी नहीं दे सकेगा।
*प्र. - तो सब जगह पर होते हुए, कुछ भी तो नहीं करता?*
उ.- आपको कैसे पता कि वो कुछ भी नहीं करता?
*प्र. - क्या करता है, बताईये?*
उ.- वही तो सभी के कर्मों का उचित फल देता है। ये अलग-अलग प्रकार के जानवर हैं, वे सब इसी के व्यवस्था के अन्तर्गत है और लोग कर्म करने में स्वतन्त्र है और ईश्वर ने लोगों को स्वतंत्र छोड़ रखा है केवल कर्मनुसार फल देना निश्चित कर रखा है।
*प्र. - ईश्वर कैसे मिलेगा?*
उ.- यह जो हम लोग पाप कर्म करते हैं, उसके कारण को (मिथ्या ज्ञान) को हटा दें तो वह परमात्मा प्राप्त होता है।