Friday 29 December 2017

*स्वामिशिशुविदेहानन्दस्वामिशिशुसत्यविदेहानन्द सरस्वति तिवारीमहाराज*

 one  should  slowly  cease  from  mental  action  by  a  buddhi  held in  the  grasp  of  fixity,  and  having  fixed  the  mind  in  the  higher  Self one  should  not think  of  anything
पूर्वश्लोकमें भगवान्ने सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग एवं इन्द्रियों का निग्रह करनेके निश्चयकी बात कही। अब कामनाओंका त्याग और इन्द्रियोंका निग्रह कैसे करें—इसका उपाय आगेके श्लोकमें बताते हैं।

शनै:        शनैरुपरमेद्बुद्ध्या       धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मन: कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्॥ २५॥

धैर्ययुक्त बुद्धिके द्वारा (संसारसे) धीरे-धीरे उपराम हो जाय (और) मन (बुद्धि)को परमात्मस्वरूपमें सम्यक् प्रकारसे स्थापन करके (फिर) कुछ  भी चिन्तन न करे।

'बुद्ध्या धृतिगृहीतया’—साधन करते-करते प्राय: साधकोंको उकताहट होती है, निराशा होती है कि ध्यान लगाते, विचार करते इतने दिन हो गये, पर तत्त्व- प्राप्ति नहीं हुई, तो अब क्या होगी? कैसे होगी? इस बातको लेकर भगवान् ध्यानयोगके साधकको सावधान करते हैं कि उसको ध्यानयोगका अभ्यास करते हुए सिद्धि प्राप्त न हो, तो भी उकताना नहीं चाहिये, प्रत्युत धैर्य रखना चाहिये। जैसे सिद्धि प्राप्त होनेपर, सफलता होनेपर धैर्य रहता है, विफलता होनेपर भी वैसा ही धैर्य रहना चाहिये कि वर्ष-के-वर्ष बीत जायँ, शरीर चला जाय, तो भी परवाह नहीं, पर तत्त्वको तो प्राप्त करना ही है। कारण कि इससे बढ़कर दूसरा कोई ऐसा काम है नहीं। इसलिये इसको समाप्त करके आगे क्या काम करना है? यदि इससे भी बढ़कर कोई काम है तो इसको छोड़ो और उस कामको अभी करो!—इस प्रकार बुद्धिको वशमें कर ले अर्थात् बुद्धिमें मान, बड़ाई, आराम आदिको लेकर जो संसारका महत्त्व पड़ा है, उस महत्त्वको हटा दे। तात्पर्य है कि पूर्वश्लोकमें जिन विषयोंका त्याग करनेके लिये कहा गया है, धैर्ययुक्त बुद्धिसे उन विषयोंसे उपराम हो जाय।

 'शनै: शनैरुपरमेत्’—उपराम होनेमें जल्दबाजी न करे; किन्तु धीरे-धीरे उपेक्षा करते-करते विषयोंसे उदासीन हो जाय और उदासीन होनेपर उनसे बिलकुल ही उपराम हो जाय।

 कामनाओंका त्याग और मनसे इन्द्रिय-समूहका संयमन करनेके बाद भी यहाँ जो उपराम होनेकी बात बतायी है, उसका तात्पर्य है कि किसी त्याज्य वस्तुका त्याग करनेपर भी उस त्याज्य वस्तुके साथ आंशिक द्वेषका भाव रह सकता है। उस द्वेष-भावको हटानेके लिये यहाँ उपराम होनेकी बात कही गयी है। तात्पर्य है कि संकल्पोंके साथ न राग करे, न द्वेष करे; किन्तु उनसे सर्वथा उपराम हो जाय।

 यहाँ उपराम होनेकी बात इसलिये कही गयी है कि परमात्म तत्त्व मनके कब्जेमें नहीं आता; क्योंकि मन प्रकृतिका कार्य होनेसे जब प्रकृतिको भी नहीं पकड़ सकता, तो फिर प्रकृतिसे अतीत परमात्मतत्त्वको पकड़ ही कैसे सकता है? अर्थात् परमात्माका चिन्तन करते-करते मन परमात्माको पकड़ ले—यह उसके हाथकी बात नहीं है। जिस परमात्माकी शक्तिसे मन अपना कार्य करता है, उसको मन कैसे पकड़ सकता है?—'यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम्’ (केन० १। ५)। जैसे, जिस सूर्यके प्रकाशसे दीपक, बिजली आदि प्रकाशित होते हैं, वे दीपक आदि सूर्यको कैसे प्रकाशित कर सकते हैं? कारण कि उनमें प्रकाश तो सूर्यसे ही आता है। ऐसे ही मन, बुद्धि आदिमें जो कुछ शक्ति है, वह उस परमात्मासे ही आती है। अत: वे मन, बुद्धि आदि उस परमात्माको कैसे पकड़ सकते हैं? नहीं पकड़ सकते।

 दूसरी बात, संसारकी तरफ चलनेसे सुख नहीं पाया है, केवल दु:ख-ही-दु:ख पाया है। अत: संसारके चिन्तनसे प्रयोजन नहीं रहा। तो अब क्या करें? उससे उपराम हो जायँ।

 'आत्मसंस्थं मन: कृत्वा’—सब जगह एक सच्चिदानन्द परमात्मा ही परिपूर्ण है। संकल्पोंमें पहले और पीछे (अन्तमें) वही परमात्मा है। संकल्पोंमें भी आधार और प्रकाशकरूपसे एक परमात्मा ही परिपूर्ण है। उन संकल्पोंमें और कोई सत्ता पैदा नहीं हुई है; किन्तु उनमें सत्तारूपसे वह परमात्मा ही है। ऐसा बुद्धिका दृढ़ निश्चय, निर्णय रहे। मनमें कोई तरंग पैदा हो भी जाय तो उस तरंगको परमात्माका ही स्वरूप माने।

 दूसरा भाव यह है कि परमात्मा देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदि सबमें परिपूर्ण है। ये देश, काल आदि तो उत्पन्न होते हैं और मिटते हैं; परन्तु परमात्मतत्त्व बनता-बिगड़ता नहीं है। वह तो सदा ज्यों-का-त्यों रहता है। उस परमात्मामें मनको स्थिर करके अर्थात् सब जगह एक परमात्मा ही है, उस परमात्माके सिवाय दूसरी कोई सत्ता है ही नहीं— ऐसा पक्का निश्चय करके कुछ भी चिन्तन न करे।

 'न किंचिदपि चिन्तयेत्’—संसारका चिन्तन न करे—यह बात तो पहले ही आ गयी। अब 'परमात्मा सब जगह परिपूर्ण है’ ऐसा चिन्तन भी न करे। कारण कि जब मनको परमात्मामें स्थापन कर दिया, तो अब चिन्तन करनेसे सविकल्प वृत्ति हो जायगी अर्थात् मनके साथ सम्बन्ध बना रहेगा, जिससे संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होगा। अगर 'हमारी ऐसी स्थिति बनी रहे’—ऐसा चिन्तन करेंगे, तो परिच्छिन्नता बनी रहेगी अर्थात् चित्तकी और चिन्तन करनेवालेकी सत्ता बनी रहेगी। अत: 'सब जगह एक परमात्मा ही परिपूर्ण है’—ऐसा दृढ़ निश्चय करनेके बाद किसी प्रकारका किंचिन्मात्र भी चिन्तन न करे। इस प्रकार उपराम होनेसे स्वत:सिद्ध स्वरूपका अनुभव हो जायगा, जिसका वर्णन पहले बाईसवें श्लोकमें हुआ है।

ध्यान
सबसे मुख्य बात यह है कि परमात्मा सब जगह परिपूर्ण है। सब देशमें, सब कालमें, सम्पूर्ण वस्तुओंमें, सम्पूर्ण व्यक्तियोंमें, सम्पूर्ण घटनाओंमें और सम्पूर्ण क्रियाओंमें परमात्मा साकार, निराकार आदि सब रूपोंसे सदा ज्यों-का-त्यों विराजमान है। उस परमात्माके सिवाय जितना भी प्रकृतिका कार्य है, वह सब-का-सब परिवर्तनशील है। परन्तु परमात्मतत्त्वमें कभी किंचिन्मात्र भी परिवर्तन नहीं हुआ, न होगा और न हो ही सकता है। उस परमात्माका ध्यान ऐसे किया जाय कि जैसे कोई मनुष्य समुद्रमें गहरा उतर जाय, तो जहाँतक दृष्टि जाती है, वहाँतक जल-ही- जल दीखता है। नीचे देखो तो भी जल है, ऊपर देखो तो भी जल है, चारों तरफ जल-ही-जल परिपूर्ण है। इस तरह जहाँ स्वयं अपने-आपको एक जगह मानता है, उसके भीतर भी परमात्मा है, बाहर भी परमात्मा है, ऊपर भी परमात्मा है, नीचे भी परमात्मा है, चारों तरफ परमात्मा-ही-परमात्मा परिपूर्ण है। शरीरके भी कण-कणमें वह परमात्मा है। उस परमात्मतत्त्वको प्राप्त करना ही मनुष्यमात्रका ध्येय है और वह नित्य-निरन्तर प्राप्त है। उस परमात्मतत्त्वसे कोई कभी दूर हो सकता ही नहीं। किसी भी अवस्थामें उससे कोई अलग नहीं हो सकता । केवल अपनी दृष्टि विनाशी पदार्थोंकी तरफ रहनेसे वह सदा परिपूर्ण, निर्विकार, सम, शान्त रहनेवाला परमात्मतत्त्व दीखता नहीं।

 अगर उस परमात्माकी तरफ दृष्टि, लक्ष्य हो जाय कि वह सब जगह ज्यों-का-त्यों परिपूर्ण है, तो स्वत: ध्यान हो जायगा, ध्यान करना नहीं पड़ेगा। जैसे, हम सब पृथ्वीपर रहते हैं, तो हमारे भीतर-बाहर, ऊपर और चारों तरफ आकाश-ही-आकाश है, पोलाहट-ही-पोलाहट है; परन्तु उसकी तरफ हमारा लक्ष्य नहीं रहता। अगर लक्ष्य हो जाय, तो हम निरन्तर आकाशमें ही रहते हैं। आकाशमें ही चलते हैं, फिरते हैं, खाते हैं, पीते हैं, सोते हैं, जगते हैं। आकाशमें ही हम सब काम कर रहे हैं।परन्तु  आकाशकी तरफ ध्यान न होनेसे इसका पता नहीं लगता। अगर उस तरफ ध्यान जाय कि आकाश है, उसमें बादल होते हैं, वर्षा होती है, उसमें सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र आदि हैं, तो आकाशका खयाल होता है, अन्यथा नहीं होता। आकाशका खयाल न होनेपर भी हमारी सब क्रियाएँ आकाशमें ही होती हैं। ऐसे ही उस परमात्मतत्त्वकी तरफ खयाल न होनेपर भी हमारी सम्पूर्ण क्रियाएँ उस परमात्मतत्त्वमें ही हो रही हैं। इसलिये गीताने कहा कि—'शनै: शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया’ अर्थात् जिस बुद्धिमें धीरज है, ऐसी बुद्धिके द्वारा धीरे-धीरे उपराम हो जाय। संसारकी कोई भी बात मनमें आये, तो उससे उपराम हो जाय। साधककी भूल यह होती है कि जिस समय वह परमात्माका ध्यान करने बैठता है, उस समय सांसारिक वस्तुकी याद आनेपर वह उसका विरोध करने लगता है। विरोध करनेसे भी वस्तुका अपने साथ सम्बन्ध हो जाता है और उसमें राग करनेसे भी सम्बन्ध हो जाता है। अत: न तो उसका विरोध करें और न उसमें राग करें। उसकी उपेक्षा करें, उससे उदासीन हो जायँ। बेपरवाह हो जायँ। संसारकी याद आ गयी तो आ गयी, नहीं आयी तो नहीं आयी—इस बेपरवाहीसे संसारके साथ सम्बन्ध नहीं जुड़ेगा। अत: भगवान् कहते हैं कि उससे उदासीन ही नहीं, उपराम हो जाय—'शनै: शनै: उपरमेत्।’

 उत्पन्न होनेवाली चीज नष्ट होनेवाली होती है—यह नियम है। अत: संसारका कितना ही संकल्प-विकल्प हो जाय, वह सब नष्ट हो रहा है। इसलिये उसको रखनेकी चेष्टा करना भी गलती है और नाश करनेका उद्योग करना भी गलती है। संसारमें बहुत-सी चीजें उत्पन्न और नष्ट होती हैं, पर उनका पाप और पुण्य हमें नहीं लगता; क्योंकि उनसे हमारा सम्बन्ध नहीं है। ऐसे ही मनमें संकल्प-विकल्प आ जाय, संसारका चिन्तन हो जाय, तो उससे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है। न तो याद आनेवाली वस्तुके साथ सम्बन्ध है और न जिसमें वस्तुकी याद आयी, उस मनके साथ ही सम्बन्ध है। हमारा सम्बन्ध तो सब जगह परिपूर्ण परमात्मासे है। अत: उत्पन्न और नष्ट होनेवाले संकल्प-विकल्पसे क्या तो राग करें और क्या द्वेष करें? यह तो उत्पत्ति और विनाशका एक प्रवाह है। इससे उपराम हो जाय, विमुख हो जाय, इसकी कुछ भी परवाह न करे।

 एक परमात्मा-ही-परमात्मा परिपूर्ण है। जब हम अपना एक व्यक्तित्व पकड़ लेते हैं, तब 'मैं हूँ’ ऐसा दीखने लगता है। यह व्यक्तित्व, 'मैं’-पन भी जिसके अन्तर्गत है, ऐसा वह अपार, असीम, सम, शान्त, सद्घन, चिद्घन, आनन्दघन परमात्मा है। जैसे, सम्पूर्ण पदार्थ, क्रियाएँ आदि एक प्रकाशके अन्तर्गत हैं। उस प्रकाशका सम्बन्ध है तो मात्र वस्तुओं, क्रियाओं, व्यक्तियों आदिके साथ है और नहीं है तो किसीके भी साथ सम्बन्ध नहीं है। प्रकाश अपनी जगह ज्यों-का-त्यों स्थित है। उसमें कई वस्तुएँ आती-जाती रहती हैं, कई क्रियाएँ होती रहती हैं; किन्तु प्रकाशमें कुछ भी फर्क नहीं पड़ता। ऐसे ही प्रकाशस्वरूप परमात्माके साथ किसी भी वस्तु, क्रिया आदिका कोई सम्बन्ध नहीं है। सम्बन्ध है तो सम्पूर्णके साथ सम्बन्ध है, नहीं तो किसीके साथ भी सम्बन्ध नहीं है। ये वस्तु, क्रिया आदि सब उत्पत्ति-विनाशवाली हैं और वह परमात्मा अनुत्पन्न तत्त्व है। उस परमात्मामें स्थित होकर कुछ भी चिन्तन न करे।

 एक चिन्तन 'करते’ हैं और एक चिन्तन 'होता’ है। चिन्तन करे नहीं और अपने-आप कोई चिन्तन हो जाय तो उसके साथ अपना सम्बन्ध न जोड़े, तटस्थ रहे। वास्तवमें हम तटस्थ ही हैं; क्योंकि संकल्प-विकल्प तो उत्पन्न और नष्ट होते हैं, पर हम रहते हैं। इसलिये रहनेवाले स्वरूपमें ही रहें और संकल्प-विकल्पकी उपेक्षा कर दें, तो हमारेपर वह (संकल्प-विकल्प) लागू नहीं होगा। साधक एक गलती करता है कि जब उसको संसार याद आता है, तब वह उससे द्वेष करता है कि इसको हटाओ, इसको मिटाओ। ऐसा करनेसे संसारके साथ विशेष सम्बन्ध जुड़ जाता है। इसलिये उसको हटानेका कोई उद्योग न करे, प्रत्युत ऐसा विचार करे कि जो संकल्प-विकल्प होते हैं, उनमें भी वह परमात्मतत्त्व ओतप्रोत है। जैसे जलमें बर्फका ढेला डाल दें, तो बर्फ स्वयं भी जल है और उसके बाहर भी जल है। ऐसे ही संकल्प-विकल्प कुछ भी आये, वह परमात्माके ही अन्तर्गत है और संकल्प-विकल्पके भी अन्तर्गत परमात्मा-ही-परमात्मा परिपूर्ण है। जैसे समुद्रमें बड़ी-बड़ी लहरें उठती हैं। एक लहरके बाद दूसरी लहर आती है। उन लहरोंमें भी जल-ही-जल है। देखनेमें लहर अलग दीखती है, पर जलके सिवाय लहर कुछ नहीं है। ऐसे ही संकल्प-विकल्प में परमात्मतत्त्वके सिवाय कोई तत्त्व नहीं है, कोई वस्तु नहीं है।

 अभी कोई पुरानी घटना याद आ गयी, तो वह घटना पहले हुई थी, अब वह घटना नहीं है। मनुष्य जबर्दस्ती उस घटनाको याद करके घबरा जाता है कि क्या करूँ, मन नहीं लगता! वास्तवमें जब परमात्माका ध्यान करते हैं, उस समय अनेक तरहकी पुरानी बातोंकी याद, पुराने संस्कार नष्ट होनेके लिये प्रकट होते हैं। परन्तु साधक इस बातको समझे बिना उनको सत्ता देकर और मजबूत बना लेता है। इसलिये उनकी उपेक्षा कर दे। उनको न अच्छा समझे और न बुरा समझे, तो वे जैसे उत्पन्न हुए, वैसे ही नष्ट हो जायँगे। हमारा सम्बन्ध परमात्माके साथ है। हम परमात्माके हैं और परमात्मा हमारा है। सब जगह परिपूर्ण उस परमात्मामें हमारी स्थिति सब समयमें है—ऐसा मानकर चुप बैठ जाय। अपनी तरफसे कुछ भी चिन्तन न करे। अपने-आप चिन्तन हो जाय तो उससे सम्बन्ध न जोड़े। फिर वृत्तियाँ अपने-आप शान्त हो जायँगी और परमात्माका ध्यान स्वत: होगा। कारण कि वृत्तियाँ आने-जानेवाली हैं और परमात्मा सदा रहनेवाला है। जो स्वत:सिद्ध है, उसमें करना क्या पड़ेगा? करना कुछ है ही नहीं। साधक ऐसा मान लेता है कि मैं ध्यान करता हूँ, चिन्तन करता हूँ—यह गलती है। जब सब जगह एक परमात्मा ही है, तो क्या चिन्तन करे, क्या ध्यान करे! समुद्रमें लहरें होती हैं, पर जल-तत्त्वमें न लहरें हैं, न समुद्र है। ऐसे ही परमात्मतत्त्वमें न संसार है, न आकृति है, न आना-जाना है। वह परमात्मतत्त्व परिपूर्ण है, सम है, शान्त है, निर्विकार है, स्वत:सिद्ध है। उसका चिन्तन करना नहीं पड़ता। उसका चिन्तन क्या करें? उसमें तो हमारी स्थिति स्वत: है, हर समय है। व्यवहार करते समय भी उस परमात्मासे हम अलग नहीं होते, प्रत्युत निरन्तर उसमें रहते हैं। जब व्यवहारवाली वस्तुओंको आदर देते हैं, महत्त्व देते हैं, तब विक्षेप होता है। एकान्तमें बैठे हैं और कोई बात याद आ जाती है तो विक्षेप हो जाता है। वास्तवमें विक्षेप उस बातसे नहीं होता। उसको सत्ता दे देते हैं, महत्ता दे देते हैं, उससे विक्षेप होता है।

 जैसे आकाशमें बादल आते हैं और शान्त हो जाते हैं, ऐसे ही मनमें कई स्फुरणाएँ आती हैं और शान्त हो जाती हैं। आकाश में कितने ही बादल आयें और चले जायँ, पर आकाशमें कुछ परिवर्तन नहीं होता; वह ज्यों-का-त्यों रहता है। ऐसे ही ध्यानके समय कुछ याद आये अथवा न आये, परमात्मा ज्यों-का-त्यों परिपूर्ण रहता है। कुछ याद आये तो उसमें भी परमात्मा है और कुछ याद न आये तो उसमें भी परमात्मा है। देखनेमें, सुननेमें, समझनेमें जो कुछ आ जाय, उन सबके बाहर भी परमात्मा है और सबके भीतर भी परमात्मा है। चर और अचर जो कुछ है, वह भी परमात्मा ही है। दूर-से-दूर भी परमात्मा है, नजदीक-से-नजदीक भी परमात्मा है। परन्तु अत्यन्त सूक्ष्म होनेसे वह बुद्धिके अन्तर्गत नहीं आता (गीता—तेरहवें अध्यायका पन्द्रहवाँ श्लोक)। ऐसा वह परमात्मा सद्घन, चिद्घन, आनन्दघन है। सब जगह पूर्ण आनन्द, अपार आनन्द, सम आनन्द, शान्त आनन्द, घन आनन्द, अचल आनन्द, अटल आनन्द, आनन्द-ही-आनन्द है!

 एकान्तमें ध्यान करनेके सिवाय दूसरे समय कार्य करते हुए भी ऐसा समझे कि परमात्मा सबमें परिपूर्ण है। कार्य करते हुए सावधान होकर परमात्माकी सत्ता मानेंगे, तो ध्यानके समय बड़ी सहायता मिलेगी और ध्यानके समय संकल्प-विकल्पकी उपेक्षा करके परमात्मामें अटल स्थित रहेंगे, तो व्यवहार करते समय परमात्माके चिन्तनमें बड़ी सहायता मिलेगी। जो साधक होता है, वह घंटे-दो-घंटे नहीं, आठों पहर साधक होता है। जैसे ब्राह्मण अपने ब्राह्मणपनेमें निरन्तर स्थित रहता है, ऐसे ही मात्र जीव परमात्मामें निरन्तर स्थित रहते हैं। ब्राह्मण तो पैदा होता है, पर परमात्मा पैदा नहीं होता। परन्तु काम-धंधा करते हुए पदार्थोंकी, क्रियाओंकी, व्यक्तियोंकी तरफ वृत्ति रहनेसे उन सबमें परिपूर्ण परमात्मा दीखता नहीं। इसलिये एकान्तमें बैठकर ध्यान करते समय और व्यवहारकालमें कार्य करते समय साधककी दृष्टि इस तरफ रहनी चाहिये कि सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना, क्रिया आदिमें एक परमात्मतत्त्व ही ज्यों-का-त्यों परिपूर्ण है। उसीमें स्थित रहे और कुछ भी चिन्तन न करे।

परिशिष्ट भाव—ध्यानयोगके दो प्रकार हैं—(१) मनको एकाग्र करना और (२) विवेकपूर्वक मनसे सम्बन्ध-विच्छेद करना। विवेकपूर्वक सम्बन्ध-विच्छेदसे तत्काल मुक्ति होती है। संसारमें कितना पाप-पुण्य होता है, पर उसके साथ हमारा सम्बन्ध है ही नहीं, ऐसे ही शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिके साथ भी हमारा सम्बन्ध नहीं है। इसीको 'उपरति’ कहते हैं। चिन्तन करनेकी वृत्तिसे भी सम्बन्ध नहीं रहना चाहिये। श्रीमद्भागवतमें आया है-
सर्वं ब्रह्मात्मकं तस्य विद्ययाऽऽत्ममनीषया।
परिपश्यन्नुपरमेत्      सर्वतो    मुक्तसंशय:॥
                                (श्रीमद्भा० ११। २९। १८)

  'पूर्वोक्त साधन (मन-वाणी-शरीरकी सभी क्रियाओं से परमात्मा की उपासना) करनेवाले भक्तका 'सब कुछ परमात्मस्वरूप ही है’—ऐसा निश्चय हो जाता है। फिर वह इस अध्यात्मविद्याके द्वारा सब प्रकारसे संशयरहित होकर सब जगह परमात्माको भलीभाँति देखता हुआ उपराम हो जाय अर्थात् 'सब कुछ परमात्मा ही हैं’—यह चिन्तन भी न रहे, प्रत्युत साक्षात् परमात्मा ही दीखने लगें।’

  सम्पूर्ण देश, काल, क्रिया, वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति, घटना आदिमें एक ही परमात्मतत्त्व सत्तारूपसे ज्यों-का-त्यों परिपूर्ण है। देश, काल आदिका तो अभाव है, पर परमात्म तत्त्वका नित्य भाव है। इस प्रकार साधक पहले मन-बुद्धिसे यह निश्चय कर ले कि 'परमात्मतत्त्व है’। फिर इस निश्चयको भी छोड़ दे और चुप हो जाय अर्थात् कुछ भी चिन्तन न करे। आत्माका, अनात्माका, परमात्माका, संसारका, संयोगका, वियोगका कुछ भी चिन्तन न करे। कुछ भी चिन्तन करेगा तो संसार आ ही जायगा। कारण कि कुछ भी चिन्तन करनेसे चित्त (करण) साथमें रहेगा। करण साथमें रहेगा तो संसारका त्याग नहीं होगा; क्योंकि करण भी संसार ही है। इसलिये 'न किञ्चिदपि चिन्तयेत्’ में करणसे सम्बन्ध-विच्छेद है; क्योंकि जब करण साथमें नहीं रहेगा, तभी असली ध्यान होगा। सूक्ष्म-से-सूक्ष्म चिन्तन करनेपर भी वृत्ति रहती ही है, वृत्तिका अभाव नहीं होता। परन्तु कुछ भी चिन्तन करनेका भाव न रहनेसे वृत्ति स्वत: शान्त हो जाती है। अत: साधकको चिन्तनकी सर्वथा उपेक्षा करनी है। जैसे जलके स्थिर (शान्त) होनेपर उसमें मिली हुई मिट्टी शनै:-शनै: अपने-आप नीचे बैठ जाती है, ऐसे ही चुप होनेपर सब विकार शनै:-शनै: अपने-आप शान्त हो जाते हैं, अहम् गल जाता है और वास्तविक तत्त्व (अहंरहित सत्ता) का अनुभव हो जाता है।

  यहाँ वृत्तिका अभाव करनेमें ही 'शनै: शनै:’पदोंका प्रयोग हुआ है 'शनै: शनै:’ कहनेका तात्पर्य है कि जबर्दस्ती न करे, जल्दबाजी न करे; क्योंकि जन्म-जन्मान्तरके संस्कार जल्दबाजीसे नहीं मिटते। जल्दबाजी चंचलताको स्थिर, स्थायी करनेवाली है, पर 'शनै: शनै:’ चंचलताका नाश करनेवाली है।

  प्रकृतिके सम्बन्धके बिना तत्त्वका चिन्तन, मनन आदि नहीं हो सकता। अत: साधक तत्त्वका चिन्तन करेगा तो चित्त साथमें रहेगा, मनन करेगा तो मन साथमें रहेगा, निश्चय करेगा तो बुद्धि साथमें रहेगी, दर्शन करेगा तो दृष्टि साथमें रहेगी, श्रवण करेगा तो श्रवणेन्द्रिय साथमें रहेगी, कथन करेगा तो वाणी साथमें रहेगी। ऐसे ही 'है’ को मानेगा तो मान्यता तथा माननेवाला रह जायगा और 'नहीं’ का निषेध करेगा तो निषेध करनेवाला रह जायगा। कर्तृत्वाभिमानका त्याग करेगा तो 'मैं कर्ता नहीं हूँ’—यह सूक्ष्म अहंकार रह जायगा अर्थात् त्याग करनेसे त्याज्य वस्तु और त्यागी (त्याग करनेवाला) रह जायगा। इसलिये साधक उपराम हो जाय अर्थात् न मान्यता करे, न निषेध करे; न ग्रहण करे, न त्याग करे, प्रत्युत स्वत:सिद्ध स्वाभाविक तत्त्वको स्वीकार करे और बाहर-भीतरसे चुप हो जाय। मेरेको चुप होना है—यह आग्रह (संकल्प) भी न रखे, नहीं तो कर्तृत्व आ जायगा; क्योंकि चुप स्वत:सिद्ध है।

  साधक मैं, तू, यह और वह—इन चारोंको छोड़ दे तो एक 'है’ (सत्तामात्र) रह जाता है। उस स्वत:सिद्ध 'है’ को स्वीकार कर ले तथा अपनी ओरसे कुछ भी चिन्तन न करे। यदि अपने-आप कोई चिन्तन आ जाय तो उससे न राग करे, न द्वेष करे; न राजी हो, न नाराज हो; न उसको अच्छा माने, न बुरा माने और न अपनेमें माने, चिन्तन करना नहीं है, पर चिन्तन हो जाय तो उसका कोई दोष नहीं है। अपने-आप हवा बहती है, सरदी-गरमी आती है, वर्षा होती है तो उसका हमें कोई दोष नहीं लगता; क्योंकि उसके साथ हमारा कोई सम्बन्ध ही नहीं है। दोष तो जड़तासे सम्बन्ध जोडऩेसे लगता है। अत: चिन्तन हो जाय तो उसकी उपेक्षा रखे, उसके साथ अपनेको मिलाये नहीं अर्थात् ऐसा न माने कि मैं चिन्तन करता हूँ और चिन्तन मेरेमें होता है। चिन्तन मनमें होता है और मनके साथ मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है।

  'आत्मसंस्थं मन: कृत्वा’ में 'मन’ शब्द बुद्धिका वाचक है; क्योंकि चंचलता मनमें और स्थिरता बुद्धिमें होती है। अत: 'आत्मसंस्थम्’ कहनेका तात्पर्य है कि चंचलता न रहे, प्रत्युत स्थिरता रहे। जैसे 'यह अमुक गाँव है’—ऐसी मान्यता दृढ़ होनेसे इसका चिन्तन नहीं करना पड़ता, ऐसे ही 'परमात्मा हैं’—ऐसी मान्यता दृढ़ रहे तो फिर इसका चिन्तन नहीं करना पड़ेगा। जो स्वत:सिद्ध है, उसका चिन्तन क्या करें? इसलिये आत्मचिन्तन करनेसे आत्मबोध नहीं होता; क्योंकि आत्म चिन्तन करनेसे चिन्तक रहता है और अनात्माकी सत्ता रहती है। अनात्माकी सत्ता मानेंगे, तभी तो अनात्माका त्याग और आत्माका चिन्तन करेंगे!

  'न किञ्चिदपि चिन्तयेत्’—इसको 'चुप साधन’, 'मूक सत्संग’ और अचिन्त्यका ध्यान’ भी कहते हैं। इसमें न तो स्थूलशरीरकी क्रिया है, न सूक्ष्मशरीरका चिन्तन है और न कारण शरीरकी स्थिरता है। इसमें इन्द्रियाँ भी चुप हैं, मन भी चुप है, बुद्धि भी चुप है अर्थात् शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिकी कोई क्रिया नहीं है। सभी चुप हैं, कोई बोलता नहीं! जो देखना था वह देख लिया, सुनना था वह सुन लिया, बोलना था वह बोल लिया, करना था वह कर लिया, अब कुछ भी देखने, सुनने, बोलने, करने आदिकी रुचि नहीं रही—ऐसा होनेपर ही 'चुप साधन’ होता है। यह 'चुप साधन’ समाधिसे भी ऊँचा है; क्योंकि इसमें बुद्धि और अहम्से सम्बन्ध-विच्छेद है। समाधिमें तो लय, विक्षेप, कषाय और रसास्वाद—ये चार दोष (विघ्न) रहते हैं, पर चुप साधनमें ये दोष नहीं रहते। चुप साधन वृत्तिरहित है।

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