Saturday, 5 August 2017

आदिशंकराचार्य +++

तप से चित्तभूमि तैयार होने पर श्रवण से तत्त्वबोध होता है जिसे योग से दृढ करने के लिये निर्विकल्प समाधि में स्थित रहा जाता है । द्वैताकार वृत्ति का अनुदय और अद्वैताकार वृत्ति की स्थिरता यहाँ समाधि है जिससे तत्त्वज्ञान हो जाता है , अज्ञान मिटा देता है । फिर प्रारब्धवश जब व्युत्थान होता है अर्थात् समाधि टूटती है , द्वैताकार वृत्ति बनती है तब भी विद्वान् को अद्वैत की याद हरदम कायम रहती है । द्वैत को मिथ्या जानने से उसकी प्रतीति के बावजूद वह याद रखता है कि सत्य अद्वैत ब्रह्म ही है । इसका चिह्न है कि वह ब्रह्म की स्तुति करता रहता है , जो कुछ कहता है वह परमात्मा की प्रशंसा ही है । तैत्तिरीय उपनिषद् में भी तत्त्वज्ञान के बाद अपनी सर्वरूपता का गान करते हुए विद्वान् रहता है यह बताया । गान या स्तवन यह द्योतित करता है कि उसे सर्वात्मा का स्मरण बना हुआ है , भेदानुभव ने अभेदानुभूव को अभिभूत नहीं कर लिया । परमात्मा को सर्वरूप कहना स्तुति है , यथावत् स्थिति नहीं क्योंकि सर्व कुछ है यह मानकर परमात्मा को तद्रूप कहा जा रहा है । वास्तव में तो सर्व अर्थात् विभिन्न व्यक्तियों व वस्तुओं का समुदाय है   ही नहीं कि परमात्मा को सर्वरूप कहा जाये । व्युत्थान दशा में सर्व प्रतीत होता है तो उसे परमात्मा पर ही आरोपित जानते हुए विद्वान् कहता है कि वही इन सब रूपों में है अतः यह स्तुति है । हर चीज को परमात्म दृष्टि से देखें तो परमात्मा को कभी भूल नहीं पायेंगे । गाली को भी दुर्वचन के रूप में न ग्रहण कर उसके प्रत्येक अक्षर की परमात्मबोधकता के आधार पर परमात्मा के ज्ञापक के रूप में ग्रहण करने की आदत पड़ जाये तब सदा शिवदृष्टि कायम रहेगी । गाली को दुर्वचन मानने से बहिर्मुखी विचार - प्रवाह प्रारम्भ होकर दुःख , द्वेष आदि बढ़ेगा । पुराणों में यही स्पष्ट करने के लिये ऋषियों के वर्णन आये हैं कि दीर्घ समाधि के बाद भी यदि क्षणभर को भी ब्रह्म को भूले तो शाप - कोप आदि से अपना तप क्षीण कर गये । संसार को सत्य समझने वाला संसार में ही फायदा - नुकसान देखता है जबकि उसे मिथ्या जानने वाला आत्मस्थिति को ही फायदा और उसके विचलन को ही नुकसान देखता है । इसीलिये अध्यात्म साधक में वैराग्य की अत्यधिक आवश्यकता है । विद्वान् स्वभावतः स्तुति करता है , मुमुक्षु यत्नतः ऐसा करे । सर्वरूप परमात्मा है इसे द्योतित करने वाले अनेक  स्तोत्रादि वेद , पुराण आदि उपलब्ध हैं , उनका सतत अर्थ - चिन्तन सहित आवर्तन भी अत्यन्त सहायक हो जाता है क्योंकि विचार को दिशा - निर्देश देता है । प्रकृत उपनिषत् में " कुत्स मुनि कृत स्तुति " आयी है जिसमें ब्रह्मा , विष्णु आदि सब रूपों वाला परमेश्वर को कहा है । स्वयं में जब रचयितृत्व , पालकत्व , नाशकत्व प्रतीत हो तब विचार करना चाहिये कि ये ब्रह्मा , विष्णु , रुद्र के ही कार्य हैं , परमेश्वर ही उन रूपों से ये कार्य सम्पन्न कर रहा है , मैं इसमें उपकरण - मात्र हूँ । इस तरह दृश्य और द्रष्टा दोनों परमात्मरूप हैं यह अनुसन्धान बनाये रखना साधक के लिये उपयोगी है । इससे कर्तृत्व भोक्तृत्व शिथिल पड़ता जाता है । द्वैत के संस्कार अनादि काल से पड़े हैं , अतिगहन हैं , अतः उन्हें दूर करने के लिये प्रयत्न अत्यधिक चाहिये । कपड़ा जितना ज्यादा गंदा हो उसे साफ करने के लिये उतनी ही ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है । अभ्यास की अत एव आश्यकता है , केवल समझ लेना पर्याप्त नहीं , उसे प्रतिक्षण दोहराते रहना , समाधि में वही बोध रखना, व्युत्थान में वैसी ही दृष्टि बनाते रहना पड़ता है तभी धीरे - धीरे द्वैतवासना दूर होकर ज्ञान  दूढ हो सकता है । भगवान् शङ्करचार्य जी कृत " उपदेशसाहस्री " के परिसंख्यान प्रकरण आदि में इसके लिये स्पष्ट निर्देश उपलब्ध है । योग अर्थात् निर्विकल्प समाधि में अद्वैत का सुस्पष्ट अनुभव हो जाये , व्युत्थान काल में दीर्घ अभ्यास से द्वैत - वासनाओं का क्षय हो जाये तो " मैं जीव हूँ " यह भ्रम सदा के लिये समाप्त हो जाता है । भूतकार्य शरीरों में मैं - बुद्धि ही जीवभाव है , अपनी पूर्ण व्यापकता के अनुभव से वह परिच्छिन्न अभिमान निवृत्त हो जाता है । स्वयं परमेश्वर ही जब भूत - भौतिक आकारों में प्रतीयमान तथा वही देहों में प्रविष्टरूप से प्रतीयमान है तब भेद की कोई सम्भावना रह नहीं जाती । दृश्य - द्रष्टा दोनों मिथ्या हैं , दोनों का अधिष्ठान चिन्मात्र ही सत्य है , वही प्रत्यक्तम वस्तु है । सत्य के साक्षात्कार से जब जीवभाव मिट जाता है तब वास्तविक सत्य ही बचेगा इसमें क्या संदेह ! बोद्धों के विज्ञानवाद का इतना ही संदेश हो कि प्रमाता मिथ्या है तो बात गलत नहीं है किन्तु वे सत्य चिद्रूप अधिष्ठान को नकारते हैं इसलिये उनका मत गलत हो जाता है । किसी सत्य के सहारे ही दूसरे को असत्य समझ सकते हैं , यदि कुछ सत्य है  ही नहीं तो " सब सत्य है " व " सब असत्य है " का कोई अन्तर ही नहीं रह जाता । निरधिष्ठान भ्रम मानने के अंधविश्वास से ही बोद्धों का मत खोखला बन पड़ा है । सांख्यवाद यद्यपि आत्मा को अनात्मा से पृथक कर दिखा देता है तथापि प्रकृति को , जड प्रपञ्च को सत्य मानकर द्वैतरूप भयहेतु को कायम रखकर मोक्ष को असम्भव कर देता है । अतः वेदान्त स्पष्ट करता है कि द्वैतबुद्धि का उपमर्दन कर , जीवताभ्रम छोड़कर , परमात्मभाव में स्थित रहना ही परम पुरुषार्थ है ।

नारायण ! स्तुति के बाद उपनिषत् में समझाया है कि एक ही चिदात्मा सर्वाकारों में है , तत्त्व का कोई भेद नहीं है " तमो वा इदमग्र आसीद् एकम्। तत् परे स्यात् । तत् परेणेरितं विषमत्वं प्रयाति । एतद्रूपं वै रजः । तद् रजः खल्वीरितं विषमत्वं प्रयाति । एतद्वै सत्त्वस्य रूपम् । तत् सत्त्वमेवेरितं रसः सम्प्रास्रवत् । सोंऽशोऽयं यश्चेतामात्रः प्रतिपुरुषः क्षेत्रज्ञः सङ्कल्पाऽध्यवसायाभिमानलिङ्गः प्रजापतिर्विश्वेत्यस्य प्रामुक्ता एतास्तनवः। " अर्थात् जो कुछ भी इदं - बुद्धिगम्य है वह उत्पत्ति से पूर्व तम अर्थात् मायारूप कारणात्मा ही था , उस स्थिति में अकेला तम था ,  अभिव्यक्त हुए नाम - रूप नहीं थे । वह तम पर अर्थात् परब्रह्म पर अध्यस्त था , अचेतन सदा चित्पराधीन ही होता है । वह परमात्मा ही तम , माया को प्रेरित करता है । जैसे जल बीज में प्रवेश कर बीज को अंकुरित करता है ऐसे चैतन्य आभासरूप से माया में प्रवेश कर उसे जगदाकार में अंकुरित करता है । परमात्मा से प्रेरित हुआ तम साम्यावस्था छोड़कर कार्योन्मुख हो जाता है , यही रज आधिक्य की अवस्था है । पुनः परमात्मप्रेरणा से जब उस दशा में भी विषमता आती है तब सत्त्वाधिक्य की अवस्था होती है। परमेश्वर प्रेरित सत्त्व के आधिक्य में रस अर्थात् चिदानन्दरूप प्रकाश प्रकट होता है । सत्त्व में प्रकट हुआ चेतन ही पुरुष की प्रतिकृति है , उसे ही क्षेत्रज्ञ कहते हैं । संकल्प , निश्चय , अभिमान आदि उस क्षेत्रज्ञ के चिह्न हैं । संकल्पादि ही व्यावहारिक चेतन का अनुमान कराते हैं , जड शरीर से अन्य चेतन को युक्तियुक्त सिद्ध करते हैं । सत्त्व में पड़ा चित्प्रतिबिम्ब ही विश्व - विराट् आदि व्यष्टि - समष्टि शरीर ग्रहण करता है । प्रतिबिम्ब सत्त्व के कारण ही ग्रहण होने पर भी रजस् - तमस् के साहचर्यवश उपाधि में विशेषताएँ आ जाती हैं जैसे तम  आधिक्य से रुद्र - उपाधि , रज आधिक्य से ब्रह्मा - उपाधि , एवं सत्त्वाधिक्य से विष्णु - उपाधि बन जाने से इनमें प्रतिबिम्बित रुद्रादि देव हो जाते है । जितने भी विविध चेतन प्रतीयमान हैं सब इसी तरह विभिन्न हुए हैं , बिम्ब चेतन अखण्ड ही है ।

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