Swamishishuvidehanand Tiw: Swamishishuvidehanand Tiw: ता ,२१/७/२०१७/ दोपहर
१"५३-( १३'५३)
श्रिदुर्गारक्ताम्बरा शक्तिपीठ ,संस्थापक अध्यक्ष
हम स्वामि शिशुविदेहानंद सरस्वती तिवारी महाराज ' अग्निहोत्रितिवारी'
तिवारी का बाडा
कारंजालाड (दत्त) 444105 जिला वाशिम महाराष्ट्र
माॅ मीराबाई ह तिवारी द्वारा आयोजित कार्यक्रम सव्वाकरोड मिट्टी के शिवलिंग निर्माण में विश्व के अनेकानेक व्यक्ति
ग्लोबल वार्मिंग एवं भूमंडलीय औष्णिकरण पर सन 1994/2005/ से कार्य अध्यात्मिक पद्धति से शुरू है
पहलाचरण एकतालिसलाख ग्यारह हजार पाचसौ का पुर्ण हो चूका,
अब
दुसराचरण एकसष्टलाख ग्यारहहजार मिट्टि के शिवलिंग निर्माण का शुरू है ,
।। अथातों वृक्षसंवर्धन जिद्न्यासा।।
एकसठलाख ग्यारहहजार शिवलिंगम् का अभिषेकम् पुजनम्
दुसराचरण पूर्ण हो गया है।
माँ
मीराबाई ह तिवारि द्वारा
आयोजित कार्यक्रम सव्वासौकरोड मिट्टी के शिवलिंगम् निर्माण
एकसष्ठ लाख ग्यारहहजार नौ सौ (६१०००००"११हजार नौ सौ )
।। अथातों वैदिक वृक्ष जिद्न्यासा ।।
श्रिदुर्गारक्ताम्बरा शक्तिपिठ, संस्थापक अध्यक्ष स्वामिशिशुविदेहानन्द'स्वामिशिशुसत्यविदेहानन्द सरस्वति तिवारीमहाराज कारंजालाड(दत्त)४४४१०५ जिला वाशिम के
माँ मिराबाई हरीकिसन तिवारि के मार्गदर्शन में ,
शक्तीपिठ में सब वृक्षसंवर्धन के कार्य होते है।
।। अथातों वृक्षसंवर्धन जिद्न्यासा ।।
।। अथातों भक्त जिद्न्यासा ।।
श्रिदुर्गारक्ताम्बरा शक्तिपिठ ,संस्थापक अध्यक्ष स्वामिशिशुविदेहानन्दस्वामिशिशुसत्यविदेहानन्द सरस्वति तिवारीमहाराज , के तत्वावधान में
विशाल
पौधरोपण एवं
षोषखड्डा = रेनवाटर हार्वेस्टिंग , ,ओर प्रीय मित्रों, अनुयायियों ,और सदस्यों को हम
स्वामिशिशुविदेहानन्दस्वामिशिशुसत्यविदेहानन्द सरस्वति तिवारीमहाराज
आवाहन करते है ..
शिवलिंगम् निर्माण में शामिल हुए।
Swamishishuvidehanand TiwariMaharaJ
SwamishishuvidehanandSwamishishusatyaVidehanand Sarswati
09921700260/09503857973
।। अथातों भक्त जिद्न्यासा।।
*मनुर्भव (मनुष्य बनो)*
वेद कहता है कि तू मनुष्य बन।जब कोई जैसा बन जाता है तो वैसा ही दूसरे को बना सकता है।जलता हुआ दीपक ही बुझे हुए दीपक को जला सकता है।
बुझा हुआ दीपक भला बुझे हुए दीपक को क्या जलाएगा?मनुष्य का कर्त्तव्य है कि स्वयं मनुष्य बने और दूसरों को मनुष्यत्व की प्रेरणा दे।स्वयं अच्छा बने और दूसरों को अच्छा बनाए।यदि मनुष्य स्वयं तो अच्छा बनता है, परन्तु दूसरों को अच्छा नहीं बनाता तो उसकी साधना अधूरी हो जाती है।यदि स्वयं तो अच्छा है, परन्तु अपनी सन्तान को अच्छा नहीं बनाता तो वह अपने लक्ष्य में आधा सफल होता है।
वास्तव में मानव की मानवता ही उसका आभूषण है।वेद, मनुष्य को उपदेश देता है कि तू मनुष्य बन।कोई कहता है मुसलमान बन, कोई कहता है तू ईसाई बन।कोई कहता है तू बौद्ध बन, परन्तु वेद कहता है तू मनुष्य बन।यह और इस जैसी विशेषताएँ वेद के आसन को अन्य धर्मग्रन्थों के आसन से बहुत ऊँचा उठा देती है।वेद का उपदेश संकीर्णता और संकुचितता से परे है।वेद का उपदेश सभी स्थानों, सभी कालों और सभी मनुष्यों पर समान रुप से लागू होता है।.
जब संसार में यह वेदोपदेश चरितार्थ था तब संसार में मानव वस्तुतः मानव था।मानवता का भेद करने वाले कारण उपस्थित नहीं थे।
संसार में जितने जलचर, नभचर और भूचर प्राणी हैं, उनमें से सर्वश्रेष्ठ प्राणी मनुष्य की शरीर–रचना, अन्य प्राणियों से अति श्रेष्ठ है।उसे बुद्धि से विभूषित करके परमात्मा ने चार चाँद लगा दिये।
शतपथ ब्राह्मणकार ने बहुत ही सुन्दर कहा है―
*पुरुषो वै प्रजापतेर्नेदिष्ठम्।*
*अर्थात्―*प्राणियों में से मनुष्य परमेश्वर के निकटतम है।अन्य कोई प्राणी परमेश्वर की इतनी निकटता को प्राप्त किये हुए नहीं है जितनी कि मनुष्य।
यदि मानव अपनी मानवता को पहचानता रहे तो वह मनुष्य है, अन्यथा उसमें पशुत्व उभरकर उसे पशु बना देता है।
संस्कृत मे स्वामिशिशुविदेहानन्द सरस्वति तिवारीमहाराज ने कहा है :--
खादते मोदते नित्यं शुनकः शूकरः खरः।
तेषामेषां को विशेषो वृत्तिर्येषां तु तादृशी।।
_कुत्ते, सूअर और गधे आदि भी खाते–पीते और खेलते–कूदते हैं।यदि मनुष्य भी केवल इन्हीं बातों से अपने जीवन की सार्थकता मानता है तो फिर उसमें और पशु में अन्तर ही क्या है?_
कवि तो केवल खाने–पीने और खेलने–कूदने तक ही कहकर रह गया, परन्तु ऐसे भी मनुष्य हैं जिनमें और पशुओं में कोई अन्तर नहीं है।मूर्खता में कई व्यक्ति गधे के समान होते हैं।बस्तियाँ उजाड़ने वाले मनुष्य उल्लुओं से भी अधिक भयंकर होते हैं।कड़वी और तीखी बातें कहनेवाले ततैयों से भी अधिक पीड़क होते हैं।
व्यसनी व्यक्ति जो दूसरों को भयंकर व्यसनों का शिकार बना लेते हैं, साँपों और बिच्छुओं से भी अधिक भयंकर होते हैं, क्योंकि उनके व्यसन व्यक्ति को जीवन–पर्यन्त पीड़ित करते रहते हैं।
क्रोधी और निर्बलों को दबाने वाले व्यक्ति भेड़िये के समान होते हैं।परस्पर लड़नेवालों में कुत्ते की मनोवृत्ति पाई जाती है।
अभिमानी व्यक्तियों में गरुड़ की मनोवृत्ति प्रधान है।लोभी व्यक्ति गीध के समान होते हैं।शब्द–रस में फँसे हुए प्राणी हिरण के समान, स्पर्श–सुख के वशीभूत मनुष्य हाथी के समान, रुपरस के शिकार मनुष्य पतंगे के समान, गन्धरस के शिकार भँवरे के समान, स्वाद के वशीभूत प्राणी मछली के समान होते हैं।कायर व्यक्ति को भेड़ और गीदड़ की उपमा दी जाती है।हरिचुग व्यक्तियों को गिरगिट के तुल्य ठहराया जाता है।
ये पशुवृत्तियाँ केवल अपठित और अर्द्धशिक्षित व्यक्तियों में ही नहीं पायी जातीं, अपितु पढ़े–लिखे और शिक्षित–प्रशिक्षित भी इनका शिकार हैं।बी० ए०, एम० ए० भी ईर्ष्या और द्वेष की दलदल में फँसे हुए हैं।
शास्त्री और आचार्य भी संकीर्णता और संकुचितता के रोगों से ग्रसित हैं।पढ़े–लिखे भी दूसरों को धोखा देते हैं।
वे भी छल–कपट करते हुए झिझकते नहीं हैं।शिक्षा भूषण के स्थान पर दूषण बन गई है।मनुष्य, शिक्षा प्राप्त करने से ही मनुष्य बन जाए, यह कोई आवश्यक नहीं है।
मनुष्यत्व तो एक साधना है।यह कुछ वर्षों की साधना नहीं, अपितु जीवनभर की साधना है।मनुष्यत्व की प्राप्ति के लिए मनुष्य को जागरुक रहना पड़ता है, आत्मनिरीक्षण करना पड़ता है।
तभी मनुष्य मनुष्यत्व का अधिकारी बनता है।ऊँचे मनुष्यों का संसार में मिलना बहुत कठिन है
*ईश्वर तो मिलता है इंसान ही नहीं मिलता,
*ये चीज वह है कि देखी कहीं कहीं मैंने।
१"५३-( १३'५३)
श्रिदुर्गारक्ताम्बरा शक्तिपीठ ,संस्थापक अध्यक्ष
हम स्वामि शिशुविदेहानंद सरस्वती तिवारी महाराज ' अग्निहोत्रितिवारी'
तिवारी का बाडा
कारंजालाड (दत्त) 444105 जिला वाशिम महाराष्ट्र
माॅ मीराबाई ह तिवारी द्वारा आयोजित कार्यक्रम सव्वाकरोड मिट्टी के शिवलिंग निर्माण में विश्व के अनेकानेक व्यक्ति
ग्लोबल वार्मिंग एवं भूमंडलीय औष्णिकरण पर सन 1994/2005/ से कार्य अध्यात्मिक पद्धति से शुरू है
पहलाचरण एकतालिसलाख ग्यारह हजार पाचसौ का पुर्ण हो चूका,
अब
दुसराचरण एकसष्टलाख ग्यारहहजार मिट्टि के शिवलिंग निर्माण का शुरू है ,
।। अथातों वृक्षसंवर्धन जिद्न्यासा।।
एकसठलाख ग्यारहहजार शिवलिंगम् का अभिषेकम् पुजनम्
दुसराचरण पूर्ण हो गया है।
माँ
मीराबाई ह तिवारि द्वारा
आयोजित कार्यक्रम सव्वासौकरोड मिट्टी के शिवलिंगम् निर्माण
एकसष्ठ लाख ग्यारहहजार नौ सौ (६१०००००"११हजार नौ सौ )
।। अथातों वैदिक वृक्ष जिद्न्यासा ।।
श्रिदुर्गारक्ताम्बरा शक्तिपिठ, संस्थापक अध्यक्ष स्वामिशिशुविदेहानन्द'स्वामिशिशुसत्यविदेहानन्द सरस्वति तिवारीमहाराज कारंजालाड(दत्त)४४४१०५ जिला वाशिम के
माँ मिराबाई हरीकिसन तिवारि के मार्गदर्शन में ,
शक्तीपिठ में सब वृक्षसंवर्धन के कार्य होते है।
।। अथातों वृक्षसंवर्धन जिद्न्यासा ।।
।। अथातों भक्त जिद्न्यासा ।।
श्रिदुर्गारक्ताम्बरा शक्तिपिठ ,संस्थापक अध्यक्ष स्वामिशिशुविदेहानन्दस्वामिशिशुसत्यविदेहानन्द सरस्वति तिवारीमहाराज , के तत्वावधान में
विशाल
पौधरोपण एवं
षोषखड्डा = रेनवाटर हार्वेस्टिंग , ,ओर प्रीय मित्रों, अनुयायियों ,और सदस्यों को हम
स्वामिशिशुविदेहानन्दस्वामिशिशुसत्यविदेहानन्द सरस्वति तिवारीमहाराज
आवाहन करते है ..
शिवलिंगम् निर्माण में शामिल हुए।
Swamishishuvidehanand TiwariMaharaJ
SwamishishuvidehanandSwamishishusatyaVidehanand Sarswati
09921700260/09503857973
।। अथातों भक्त जिद्न्यासा।।
*मनुर्भव (मनुष्य बनो)*
वेद कहता है कि तू मनुष्य बन।जब कोई जैसा बन जाता है तो वैसा ही दूसरे को बना सकता है।जलता हुआ दीपक ही बुझे हुए दीपक को जला सकता है।
बुझा हुआ दीपक भला बुझे हुए दीपक को क्या जलाएगा?मनुष्य का कर्त्तव्य है कि स्वयं मनुष्य बने और दूसरों को मनुष्यत्व की प्रेरणा दे।स्वयं अच्छा बने और दूसरों को अच्छा बनाए।यदि मनुष्य स्वयं तो अच्छा बनता है, परन्तु दूसरों को अच्छा नहीं बनाता तो उसकी साधना अधूरी हो जाती है।यदि स्वयं तो अच्छा है, परन्तु अपनी सन्तान को अच्छा नहीं बनाता तो वह अपने लक्ष्य में आधा सफल होता है।
वास्तव में मानव की मानवता ही उसका आभूषण है।वेद, मनुष्य को उपदेश देता है कि तू मनुष्य बन।कोई कहता है मुसलमान बन, कोई कहता है तू ईसाई बन।कोई कहता है तू बौद्ध बन, परन्तु वेद कहता है तू मनुष्य बन।यह और इस जैसी विशेषताएँ वेद के आसन को अन्य धर्मग्रन्थों के आसन से बहुत ऊँचा उठा देती है।वेद का उपदेश संकीर्णता और संकुचितता से परे है।वेद का उपदेश सभी स्थानों, सभी कालों और सभी मनुष्यों पर समान रुप से लागू होता है।.
जब संसार में यह वेदोपदेश चरितार्थ था तब संसार में मानव वस्तुतः मानव था।मानवता का भेद करने वाले कारण उपस्थित नहीं थे।
संसार में जितने जलचर, नभचर और भूचर प्राणी हैं, उनमें से सर्वश्रेष्ठ प्राणी मनुष्य की शरीर–रचना, अन्य प्राणियों से अति श्रेष्ठ है।उसे बुद्धि से विभूषित करके परमात्मा ने चार चाँद लगा दिये।
शतपथ ब्राह्मणकार ने बहुत ही सुन्दर कहा है―
*पुरुषो वै प्रजापतेर्नेदिष्ठम्।*
*अर्थात्―*प्राणियों में से मनुष्य परमेश्वर के निकटतम है।अन्य कोई प्राणी परमेश्वर की इतनी निकटता को प्राप्त किये हुए नहीं है जितनी कि मनुष्य।
यदि मानव अपनी मानवता को पहचानता रहे तो वह मनुष्य है, अन्यथा उसमें पशुत्व उभरकर उसे पशु बना देता है।
संस्कृत मे स्वामिशिशुविदेहानन्द सरस्वति तिवारीमहाराज ने कहा है :--
खादते मोदते नित्यं शुनकः शूकरः खरः।
तेषामेषां को विशेषो वृत्तिर्येषां तु तादृशी।।
_कुत्ते, सूअर और गधे आदि भी खाते–पीते और खेलते–कूदते हैं।यदि मनुष्य भी केवल इन्हीं बातों से अपने जीवन की सार्थकता मानता है तो फिर उसमें और पशु में अन्तर ही क्या है?_
कवि तो केवल खाने–पीने और खेलने–कूदने तक ही कहकर रह गया, परन्तु ऐसे भी मनुष्य हैं जिनमें और पशुओं में कोई अन्तर नहीं है।मूर्खता में कई व्यक्ति गधे के समान होते हैं।बस्तियाँ उजाड़ने वाले मनुष्य उल्लुओं से भी अधिक भयंकर होते हैं।कड़वी और तीखी बातें कहनेवाले ततैयों से भी अधिक पीड़क होते हैं।
व्यसनी व्यक्ति जो दूसरों को भयंकर व्यसनों का शिकार बना लेते हैं, साँपों और बिच्छुओं से भी अधिक भयंकर होते हैं, क्योंकि उनके व्यसन व्यक्ति को जीवन–पर्यन्त पीड़ित करते रहते हैं।
क्रोधी और निर्बलों को दबाने वाले व्यक्ति भेड़िये के समान होते हैं।परस्पर लड़नेवालों में कुत्ते की मनोवृत्ति पाई जाती है।
अभिमानी व्यक्तियों में गरुड़ की मनोवृत्ति प्रधान है।लोभी व्यक्ति गीध के समान होते हैं।शब्द–रस में फँसे हुए प्राणी हिरण के समान, स्पर्श–सुख के वशीभूत मनुष्य हाथी के समान, रुपरस के शिकार मनुष्य पतंगे के समान, गन्धरस के शिकार भँवरे के समान, स्वाद के वशीभूत प्राणी मछली के समान होते हैं।कायर व्यक्ति को भेड़ और गीदड़ की उपमा दी जाती है।हरिचुग व्यक्तियों को गिरगिट के तुल्य ठहराया जाता है।
ये पशुवृत्तियाँ केवल अपठित और अर्द्धशिक्षित व्यक्तियों में ही नहीं पायी जातीं, अपितु पढ़े–लिखे और शिक्षित–प्रशिक्षित भी इनका शिकार हैं।बी० ए०, एम० ए० भी ईर्ष्या और द्वेष की दलदल में फँसे हुए हैं।
शास्त्री और आचार्य भी संकीर्णता और संकुचितता के रोगों से ग्रसित हैं।पढ़े–लिखे भी दूसरों को धोखा देते हैं।
वे भी छल–कपट करते हुए झिझकते नहीं हैं।शिक्षा भूषण के स्थान पर दूषण बन गई है।मनुष्य, शिक्षा प्राप्त करने से ही मनुष्य बन जाए, यह कोई आवश्यक नहीं है।
मनुष्यत्व तो एक साधना है।यह कुछ वर्षों की साधना नहीं, अपितु जीवनभर की साधना है।मनुष्यत्व की प्राप्ति के लिए मनुष्य को जागरुक रहना पड़ता है, आत्मनिरीक्षण करना पड़ता है।
तभी मनुष्य मनुष्यत्व का अधिकारी बनता है।ऊँचे मनुष्यों का संसार में मिलना बहुत कठिन है
*ईश्वर तो मिलता है इंसान ही नहीं मिलता,
*ये चीज वह है कि देखी कहीं कहीं मैंने।
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