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Saturday, 11 November 2017

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Swamishishu Videhanand
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एक प्रवाह युक्त अक्षय-बिन्दु -
कुण्डलिनी-शक्ति (Serpent Fire) – मूलाधार स्थित ‘मूल’ जो शिव-लिंग कहलाता है, में साढ़े तीन फेरे में लिपटी हुई, सर्पिणी की आकृति की एक सूक्ष्म स्वतन्त्र नाड़ी होती है जिसमें आत्मा (सः) रूप शब्द-शक्ति अथवा चेतन-शक्ति पहुँचकर ‘अहम्’ रूप जीव में परिवर्तित हो जाती है। अब जब जीव उर्ध्व गति के माध्यम से पुनः शिव बनना चाहता है,
तब तो कुण्डलिनी-शक्ति मूल से उठकर सुषुम्ना के सहारे नाना प्रकार की उर्ध्व गतियों को प्राप्त करती और छोड़ती हुई आत्मा (सः) रूप शब्द-शक्ति अथवा चेतन-शक्ति से मिलकर जीव रूप ‘अहम्’ हंसो रूप शिव-शक्ति हो जाती है।
पुनः जब जीव अधोगति रूप में सन्तानोत्पत्ति करना चाहता है, तब कुण्डलिनी जागती है। जब बार-बार स्त्री-पुरुषों द्वारा मैथुनी सम्बन्ध के समय सोयी हुई सर्पिणी रूप कुण्डलिनी-शक्ति जागती है और अधोगति वाली क्रिया-कलाप देखकर क्रोधित होकर फुफकार करती है जिससे अहम् रूप जीव एक तेज प्रवाह युक्त अक्षय-बिन्दु (Fluid Existing drop of self that moves rapidly)
रूप में परिवर्तित होकर तुरन्त शुक्र (Semen)
रूप में पुनः विकार क्रम से कोष (Cell)
रूप में परिवर्तित हो जाता है पुनः सुरक्षा हेतु बीज (Sperm) में प्रवेश कर जाता है और बीज के सहारे गर्भाशय में प्रवेश कर पुनः विकास क्रम से स्वर्णिम-अण्डाकार (हिरण्य गर्भ) रूप में परिवर्तित हो जाता है। चूंकि यहाँ पर कुण्डलिनी-शक्ति की गति दो तरफ में बंटी हुई है
(1) उर्ध्वगति
(2) अधोगति
(1) कुण्डलिनी की उर्ध्वगति ,जब कोई व्यक्ति किसी गुरु से योग-साधना सीखता और करता है, तब साधना में बार-बार स्वास-प्रस्वास की क्रिया करने से इंगला नाड़ी और पिंगला नाड़ी सम हो जाती है, तत्पश्चात् सुषुम्न्ना नाड़ी में प्राण-वायु (स्वांस) के साथ आत्मा (सः) रूप चेतन-शक्ति प्रविष्ट होकर आगे बढ़ते हुये मूलाधार-चक्र में स्थित मूल रूप शिव-लिंग में साढ़े तीन वलय (फेरे) में लिपटी हुई कुण्डलिनी नाम की एक सूक्ष्म-स्वतन्त्र नाड़ी जो सर्पिणी-शक्ति (Serpent Fire) भी कहलाती है, के सिर पर ठोकर मारती है जिसके कारण सोयी हुई कुण्डलिनी-शक्ति जग जाती है,
खुले मुख वाली सुषुम्ना-नाड़ी में स्वांस-प्रस्वांस रूपी डोरी (रस्सी) के सहारे ‘अहम्’ रूप जीव के साथ ऊपर उठने अथवा चलने लगती है,
जो क्रमशः मूलाधार से चलकर स्वाधिष्ठान-चक्र में पहुँचकर विश्राम लेती है। पुनः यदि साधना जारी रही तो कुण्डलिनी-शक्ति स्वाधिष्ठान-चक्र से ऊपर उठकर अथवा चलकर मणिपूरक-चक्र में प्रवेश करेगी। पुनः वहाँ विश्राम करेगी।
इसी प्रकार यदि साधना जारी रही तो क्रमशः पहुँचते और विश्राम करते हुये यह मणिपूरक से अनाहत्-चक्र, अनाहत् से विशुद्ध-चक्र और विशुद्ध से आज्ञा-चक्र तक पहुँचकर ‘अहम्’ रूप जीव को ‘सः’ रूप चेतन-आत्मा से मुलाक़ात करा देती है जिसके परिणामस्वरूप ‘अहम्’ रूप जीव ‘सः’ रूप आत्मा अथवा चेतन-शक्ति से मिलकर शिव हो जाता है तत्पश्चात् शिव और शक्ति दोनों ‘हंसो’ रूप में संयुक्त रूप में एक साथ ही रहने लगते हैं। यही कुण्डलिनी-शक्ति की उर्ध्वगति है।
कुण्डलिनी-शक्ति जिस चक्र में पहुँचकर विश्राम करती है उस समय उस व्यक्ति के पास उस चक्र के अभीष्ट देवता की शक्ति हो जाती है जैसे मूलाधार चक्र के स्वामी गणेश है।
शक्ति जिन-जिन चक्रों में विश्राम करती हुई ऊपर को जाती है उन-उन चक्रों को गुण-कर्म एवं अवस्था के अनुसार देखें, वे अग्रलिखित हैं ।
(1) मूलाधार-चक्र (2) स्वाधिष्ठान-चक्र (3) मणिपूरक-चक्र (4) अनाहत्-चक्र (5) विशुद्ध-चक्र (6) आज्ञा-चक्र (7) सहस्रार
शरीर स्थित चक्र :
(1) मूलाधार-चक्र - मूलाधार-चक्र वह चक्र है जहाँ पर शरीर का संचालन वाली कुण्डलिनी-शक्ति से युक्त ‘मूल’ आधारित अथवा स्थित है।
यह चक्र शरीर के अन्तर्गत गुदा और लिंग मूल के मध्य में स्थित है जो अन्य स्थानों से कुछ उभरा सा महसूस होता है।
शरीर के अन्तर्गत ‘मूल’, शिव-लिंग आकृति का एक मांस पिण्ड होता है, जिसमें शरीर की संचालिका शक्ति रूप कुण्डलिनी-शक्ति साढ़े तीन फेरे में लिपटी हुई शयन-मुद्रा में रहती है।
चूँकि यह कुण्डलिनी जो शरीर की संचालिका शक्ति है और वही इस मूल रूपी मांस पिण्ड में साढ़े तीन फेरे में लिपटी रहती है इसी कारण इस मांस-पिण्ड को मूल और जहाँ यह आधारित है, वह मूलाधार-चक्र कहलाता है।
मूलाधार-चक्र अग्नि वर्ण का त्रिभुजाकार एक आकृति होती है जिसके मध्य कुण्डलिनी सहित मूल स्थित रहता है। इस त्रिभुज के तीनों उत्तंग कोनों पर इंगला, पिंगला और सुषुम्ना आकर मिलती है। इसके अन्दर चार अक्षरों से युक्त अग्नि वर्ण की चार पंखुणियाँ नियत हैं।
ये पंखुणियाँ अक्षरों से युक्त हैं वे – स, ष, श, व । यहाँ के अभीष्ट देवता के रूप में गणेश जी नियत किए गए हैं। जो साधक साधना के माध्यम से कुण्डलिनी जागृत कर लेता है अथवा जिस साधक की स्वास-प्रस्वास रूप साधना से जागृत हो जाती है ।
और जागृत अवस्था में उर्ध्वगति में जब तक मूलाधार में रहती है, तब तक वह साधक गणेश जी की शक्ति से युक्त व्यक्ति हो जाता है।
जब साधक-सिद्ध व्यक्ति सिद्धियों के चक्कर अथवा प्रदर्शन में फँस जाता है तो उसकी कुण्डलिनी उर्ध्वमुखी से अधोमुखी होकर पुनः शयन-मुद्रा में चली जाती है जिसका परिणाम यह होता है की वह सिद्ध-साधक सिद्धि का प्रदर्शन अथवा दुरुपयोग करते-करते पुनः सिद्धिहीन हो जाता है।
परिणाम यह होता है कि वह उर्ध्वमुखी यानि सिद्ध योगी तो बन नहीं पाता, सामान्य सिद्धि से भी वंचित हो जाता है। परन्तु जो साधक सिद्धि की तरफ ध्यान न देकर निरन्तर मात्र अपनी साधना करता रहता है उसकी कुण्डलिनी उर्ध्वमुखी के कारण ऊपर उठकर स्वास-प्रस्वास रूपी डोरी (रस्सी) के द्वारा मूलाधार से स्वाधिष्ठान-चक्र में पहुँच जाती ह।
स्वामिशिशुविदेहानन्दस्वामिशिशुसत्यविदेहानन्द सरस्वतितिवारीमहाराज, कारंजालाड ४४४१०५
09503857973
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Yogi K L Namdeo
Yogi K L Namdeo ShivOM... Sakti Sakti hoti hai kaya MAA ?
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Swamishishu Videhanand
Swamishishu Videhanand हा ,होती है ,एक तो _ मृत्यु के पाश में___और_-दो''' जीवन _के_ग्रास_में_
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Swamishishu Videhanand
Swamishishu Videhanand ' पाश बध्हो ''भवेत जीव___पाश''मुक्तो'' सदाशिव_____
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Swamishishu Videhanand
Swamishishu Videhanand जीव_यह_नित्यप्रति_ बन्धन_में_ही_होता_है_ वासनाओ''इच्छाओ'' रुप्दर्शन का'''पदार्थो''में''रूचि'का''और__ धन''कहा''से''आएगा''_इस_उपापोह+उद्योग''में'''वह_ जीवनभर_-दोड़ता_रहता_है_
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Swamishishu Videhanand
Swamishishu Videhanandखुद_के_अस्तित्व_का_वह'जीव''_पीछा_ही_नहीं_करता_जो_की_उसका_आत्म'चैतन्य_स्वरुप_है_ यही_ शिवोहम''आत्मोहम''तत्व'मसि''है___
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