Monday 22 August 2016

संस्कृत भाग पाठ 3

22_8_2016_सुबह 11"10
स्वामि शिशुविदेहानन्द सरस्वती
श्रिदुर्गारक्ताम्बरा शक्तिपीठ संस्थापक अध्यक्ष स्वामि शिशुविदेहानन्द सरस्वती तिवारी महाराज ' तिवारी का बाडा ' कारंजा दत्त 444105 जिला वाशिम महाराष्ट्र

|| अनंतजन अंतरराष्ट्रिय मानवचेतना आंदोलन ||

माँ मीराबाई ह तिवारी द्वारा आयोजित कार्यक्रम सव्वाकरोड मिट्टी के शिवलिंगम् निर्माण
में शामिल विश्व के अनेकानेक

 सव्वाकरोड शिवलिंगम् के
पहले चरण

एकतालिस लाख  ग्यारह हजार पांच सौ
41 लाख  11 हजार 500
उद्देश ___ ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन हो कर जो
निगेटीवीटीयां उत्पन्न हुई उनको दूर करना ओजोन की परत के गढ्ढे भरना
 जल संरक्षण कार्य
 माँ मीराबाई ह तिवारी द्वारा आयोजित कार्यक्रम सववाकरोड मिट्टी के शिवलिंग निर्माण में विश्व
के   अनेकानेक व्यक्ति
शिवलिंगम् निर्माण
||| अथातों संस्कृति जिद्न्यासा

संस्कृत में चिकित्सा पद्धति धर्म दर्शन व्याकरण गणित रसायन खगोल विज्ञान ज्योतिष शास्त्र तंत्र योग कुल मिलाकर'84' प्रकार के विषय पर साहित्य उपलब्ध उपलब्ध'18' वी शताब्दी में रेक्स चाॅज्झनीन एवं गोम्स के भाषनियम प्रकाशित होने के बाद
संस्कृत भाषा विश्व भाषा के रूप में प्रगट हूई
सम् उपसर्ग स् आगम और
कृ
धातु
 सम् + स् + कृ + त
के मिलने से
संस्कृत शब्द बना है, जिसका तात्पर्य यह है कि
विकल्प बहुल वेद भाषा का स्थिरीकृत रूप = अर्थ यह हुआ कि वह भाषा जिसका विश्लेषण विवरण एवं संस्कार व्याकरण शास्त्र वेत्ताओं द्वारा किया गया है
ऋङदण्डि ने भी संस्कृत को " संस्कृतं नाम दैवी वाक् अन्वाख्याता महर्षिभि: |'
संस्कृत वर्णमाला
1) स्वर
2) व्यंजन
3) अयोगवाह
स्वर वर्ण --वह वर्ण जो बगैर किसी अन्य वर्ण की मदद से उच्चारित किये जा सकते हैं,  उन्हे स्वर वर्ण कहते हैं
अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ लृ ए ऐ ओ एवं औ
2) व्यंजन वर्ण -- वह वर्ण जो ' स्वर वर्ण ' की सहायता से उच्चारित होते हैं, उन्हें व्यंजन वर्ण कहते हैं
क ख ग घ ङ   | च छ ज झ ञ |
ट ठ ड ढ ण     | त थ द ध न |
प फ ब भ म      | य र ल व |
श ष स ह
3) अयोगवाह वर्ण -- वह वर्ण जो संस्कृत भाषा में उपयोग तो होते हैं, किन्तु उनका स्वर एवं व्यंजन वर्णों के अंतर्गत गणना नही कर सकते उन्हें अयोगवाह कहते हैं.
अनुस्वार -- किसी वर्ण के उच्चारण के बाद की गूंज यह अनुस्वार है
ईसको
'__'__' ईस संकेत से दिखाया गया है
उदाहरण -- अं इं उं
अं ' रामं '
इं  ' हरिं  '
उं  ' भानुं '
विसर्ग -- जब वर्ण का उच्चारण स्वभावत: रूक जाता है, तब एक विशेष प्रकार की ध्वनि सुनाई देती है
ईस ध्वनि को विसर्ग कहते हैं.
ईसे वर्ण के अंत में ':' ईस चिन्ह से दिखाया जाता है
उदाहरण :- राम:  हरि:
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पाठ ' 2 ' आज तारिख 21_8_2016

वर्ण वर्गीकरण
उच्चारण में जो
समय लगता है, उसका विचार किया गया तो प्रत्येक स्वर का
र्हस्व  ' एक मात्र उच्चारण काल
दिर्घ   ' द्वि मात्रिक उच्चारण काल
एवं    '  बहु'मात्रिक उच्चारण काल
प्लुप्त ऐसे तीन भेद है
मुल रूप से पांच ही स्वर है
अ, इ, उ, ऋ, लृ
ईनमे प्रथम चार के दीर्घ रूपों आ , ई , ऊ , ऋ , मिलकर
नौ स्वर है
लृ का दीर्घ नहीं होता,  अ और इ , या ई का संयुक्त रूप ए , अ , या आ और ई का संयुक्त रूप ऐ
अ आ उ,  ऊ का संयुक्त रूप ओ तथा अ या आ और ओ का संयुक्त रूप औ होता है,
ईस प्रकार संयुक्त स्वरों से मिलकर ' स्वरों ' की संख्या तेरह
हो जाती है.
संस्कृत व्याकरण मे उच्चारण की दृष्टि से स्वरों की विशेषताएं 1) उच्चारण काल , 2) बलाघात , 3) अनु नासिकता = नासिका के मदद से उच्चारण करना
स्वरों के र्हस्व , दीर्घ , प्लुत :- उच्चारण काल पर आधारित है
पलक उठने और गिरने के समय को एकमात्रा काल जाता है
ईस दृष्टि से एक मात्र वाला = एक मात्रिक उच्चारण को '   र्हस्व ' कहते हैं
उदाहरण अ द्विमात्रिक को दिर्घ :- अ ऽ का उच्चारण
तथा बहुमात्रिक या एक ही स्वर को देर तक उच्चारित
होने पर प्लुत कहते हैं
उदाहरण :- अ ऽऽ , आ ऽऽऽ
कण्ठ आदि उच्चारण स्थानों के ऊपरी एवं निचले से जोर देकर किए जाने वाले उच्चारण के , स्वर वर्णों का
उदात्त
अनुदात्त
एवं स्वरित , ऐसे तिन भेद होते हैं
उच्चारण स्थान के साथ जीभ को दृढतापुर्वक लगाकर उच्चरित होने वाले स्वर ' बलाघात ' के साथ उच्चारित होते हैं ,अत: ईन्हे उदात्त कहते हैं
कम बलाघात के साथ उच्चरित होने वाले स्वर ' अनुदात्त '
कहलाते हैं
जीन स्वर वर्णों के उच्चारण ' संतुलित बलाघात ' पूर्वक होते हैं, वे ' स्वरित ' कहलाते हैं
ईन सभी प्रकार के स्वरों का उच्चारण दो प्रकार से किया जा सकता है, जो नासिका के मदद से उच्चरित हो वे, उन्हे अनुनासिक कहते हैं,
और जो बीना नासिका के मदद से उच्चरित होते हैं, उन्हे अननुनासिक कहते हैं
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22_8_2016_
पाठ  ( 3) रा
व्यंजन वर्णों का वर्गीकरण
संस्कृत में व्यंजन वर्णों को तीन प्रकार से विभक्त कीया है,
स्पर्श,  अंत:स्थ , उष्म
स्पर्श :- जीन व्यंजन वर्णों के उच्चारण में जिव्हा के विभिन्न भागों का उच्चारण स्थान के साथ स्पर्श हो या
निचे ओष्ठ का उपरी ओष्ठ से स्पर्ष हो उन्हें ' स्पर्श व्यंजन ' कहते हैं,  क   से   म   पर्यंत पच्चीस व्यंजन स्पर्श कहे जाते हैं
कण्ठ , तालु , मुर्धा , दन्त , एवं उपरी ओष्ठ उच्चारण स्थान है
ईन उच्चारण स्थानो से वर्णों के उच्चारण में जिव्हा अथवा निचला ओष्ठ सहायक का कार्य करते हैं
अंत: स्थ :- स्वर एवं व्यंजन वर्णों के मध्यवर्ती व्यंजन वर्णों को  ' अंत: स्थ ' कहा जाता है यही कारण है कि आधुनिक विज्ञानी ईनहे  ' अर्धस्वर ' भी कहते हैं,
य  र  ल  व  अंत: स्थ वर्ण है.
उष्म:- जिन व्यंजन वर्ण के उच्चारण में अंदर से आने वाली वायु अपेक्षाकृत अधिक उष्मा के साथ निर्गत होती है, उन्हे उष्म वर्ण कहते हैं     श  ष   स   ह   उष्म वर्ण है

संस्कृत के प्रत्येक वर्ण के उच्चारण स्थान निश्चित है |
यह स्थान वक्ता के मुख के भीतर ही होते हैं |
उदाहरण :- कण्ठ  तालु  मुर्धा  दन्त ओष्ठ  | कुछ वर्णों के उच्चारण दो स्थानों " मुख में स्थित उच्चारण स्थान तथा नासिका " से होता है
यह निम्नलिखित हैं
उच्चारण स्थान              वर्ण      
कण्ठ                  अ वर्ण क ख ग घ ङ ह और विसर्ग
तालु                     इ वर्ण  च छ ज झ ञ य श
मुर्धा                      ऋ वर्ण  ट ठ ड ढ ण र ष
दन्त                       लृ वर्ण   त थ द ध न ल स
ओष्ठ                       उ वर्ण   प फ ब भ म  
नासिका                   ङ ञ ण न म
कण्ठतालु                  ए ऐ
कण्ठोष्ठ                      ओ औ
दन्तोष्ठ                         व

वर्णों के प्रयत्न
वर्णों के उच्चारण में कुछ चेष्टा करनी पडती है , उसे प्रयत्न कहते हैं,
यह दो प्रकार के
1) आभ्यन्तर
2) बाह्य
होते हैं
आभ्यन्तर प्रयत्न
वर्ण के मुख के बाहर आने के पहले मुख के भीतर जो यत्न कीया जाता है, उसे ही आभ्यन्तर प्रयत्न कहते हैं
यह मुख के भीतर ही होता है, और ईसके बीना बाह्ययत्न
निष्फल है,   यह प्रयत्न  पाँच प्रकार के होते हैं
 स्पृष्ट
ईषस्पृष्ट
ईषद्विवृत
विवृत
संवृत
उनमे स्पृष्ट प्रयत्न स्पर्श वर्णों का होता है
ईषस्पृष्ट अंत: स्थों का
ईषदविवृत उष्म वर्णों का
और
विवृत यह स्वरों का है, हस्व अ का प्रयोग दशा में ' संवृत '
प्रयत्न होता है , और प्रक्रिया दशा में विवृत होता है. .
स्पृष्ट            | ईषत्स्पृष्ट    | विवृत       |ईषदविवृत| संवृत
क च ट त प    | य             | आ            |श            | अ
ख छ ठ थ फ   |र                | इ ई         |ष    
ग ज ड द ब      |ल              | उ ऊ ए ऐ  |स
घ झ ढ ध भ     | व               |ओ औ     |ह
ङ ञ ण न म       | लृ             |ऋ  लृ    
स्पृष्ट प्रयत्न का अर्थ है उच्चारण करते समय जिव्हा का तालु आदि उच्चारण स्थानों को छुना ईषद्स्पृष्ट का अर्थ है थोडे से ही स्पर्श से विवृत का अर्थ है वर्णों के उच्चारण के समय मुख का पुरा खुला रहना ईषद्विवृत में मुख थोडा खुला रहता है, संवृत का अर्थ है कण्ठ की विशेष अवस्था
बाह्यप्रयत्न :- मुखगूहा से  पुर्व होनेवाले यत्न को बाह्यप्रयत्न कहते हैं
विवार  संवार  श्वास  नाद  घोष अघोष  अल्पप्राण  महाप्राण  उदात्त अनुदात्त और स्वरित
प्रत्येक व्यंजन वर्ण के चार बाह्य प्रयत्न होते हैं, वर्ग के प्रथम द्वितीय एवं श  ष  स वर्णों के विवार , श्वास एवं अधोष  बाह्यप्रयत्न है वर्ग के द्वितीय चतुर्थ एवं य व र ल ह
वर्णों के संवार , नाद,  एवं घोष प्रयत्न होते हैं
ईसके अतिरिक्त प्रत्येक व्यंजन का अल्पप्राण एवं महाप्राण
प्रयत्न भी होता है, वर्ग का प्रथम तृतीय पंचम एवं य व र ल वर्णों का अल्पप्राण प्रयत्न होता है, वर्ग के द्वितीय चतुर्थ एवं श ष स ह वर्णों के महाप्राण प्रयत्न होते हैं,
स्वर वर्णों के    उदात्त    अनुदात्त    स्वरित   प्रयत्न होते हैं.
विवार     |संवार  नाद घोष |अल्पप्राण| महाप्राण|उदात्त
 श्वास   |   नाद                                             |अनुदात्त
अघोष    | घोष                |              |             |स्वरित
क ख      | ग घ ङ            | क ग ङ   |ख घ     |    अ ए    
च छ       | ज झ ञ          | च ज ञ   | छ ज    |     इ ओ    
ट ठ        | ड ढ ण           |  ट ड ण   |  ठ ढ   |      उ ऐ
त थ        | द ध न            | त द न    |  थ ध   | ऋ औ
प फ        | ब भ म            | प ब म   | फ भ    | लृ
श ष स     | य व र ल ह     | य व र ल| शषसह|
विवार ---= जीन वर्णों के उच्चारण करते समय स्वरयंत्र खुला रहता है उनको विवार प्रयत्न कहते हैं
संवार ---= जीन वर्णों के उच्चारण करते समय स्वरयंत्र संकुचित रहता है, उनको संवार प्रयत्न कहते हैं
श्वास---= कुछ वर्णों के उच्चारण में श्वास चलता है, उन्हे श्वास प्रयत्न कहते हैं
अघोष---= उच्चारण में गुंज के न होने को अघोष प्रयत्न कहते हैं
अल्पप्राण---= वर्ण के उच्चारण में प्राणवायु के अल्पउपयोग को अल्पप्राण प्रयत्न कहते हैं
महाप्राण---= प्राणवायु के अधिक उपयोग को महाप्राण प्रयत्न कहते हैं

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