Wednesday 25 July 2018

अथातों पर्यावरण जिद्न्यासा

*ता 25/7/2018 | दोपहर 12"16--12"16*

*श्रिदुर्गारक्ताम्बरा शक्तिपीठ ,संस्थापक अध्यक्ष*
*हम स्वामि शिशुविदेहानंद सरस्वती तिवारी महाराज ' अग्निहोत्रितिवारी'*
*तिवारी का बाडा*
*कारंजालाड (दत्त) 444105 जिला वाशिम महाराष्ट्र*

*ग्लोबल वार्मिंग एवं भूमंडलीय औष्णिकरण पर सन 1994/2005/ से *कार्य  अध्यात्मिक पद्धति  से शुरू है*
*पहलाचरण एकतालिसलाख ग्यारह हजार पाचसौ का पुर्ण हो चूका,*
*अब*
*दुसराचरण एकसष्टलाख ग्यारहहजार मिट्टि के शिवलिंग निर्माण का शुरू है ,*
*॥। अथातों   वृक्षसंवर्धन  जिद्न्यासा।।*

*एकसठलाख ग्यारहहजार शिवलिंगम् का अभिषेकम् पुजनम्*
*दुसराचरण पूर्ण हो गया है॥*
*माँ*
*मीराबाई ह तिवारि द्वारा*
*आयोजित कार्यक्रम सव्वासौकरोड मिट्टी के शिवलिंगम् निर्माण*

*एकसष्ठ लाख ग्यारहहजार नौ सौ (६१०००००"११हजार नौ सौ )*

*।। अथातों  वैदिक वृक्ष जिद्न्यासा ।।*

*श्रिदुर्गारक्ताम्बरा शक्तिपिठ, संस्थापक अध्यक्ष *स्वामिशिशुविदेहानन्द'स्वामिशिशुसत्यविदेहानन्द सरस्वति तिवारीमहाराज *कारंजालाड(दत्त)४४४१०५ जिला वाशिम के*
*माँ मिराबाई हरीकिसन तिवारि के मार्गदर्शन में*
     *शक्तीपिठ में सब वृक्षसंवर्धन के कार्य होते है।*

*।। अथातों वृक्षसंवर्धन  जिद्न्यासा ।।*

 *माँ मिराबाई ह तिवारि ,उन पौधो का अनावरण् करती हुई*

*।।  अथातों  भक्त  जिद्न्यासा  ।।*

*श्रिदुर्गारक्ताम्बरा शक्तिपिठ ,संस्थापक अध्यक्ष *स्वामिशिशुविदेहानन्दस्वामिशिशुसत्यविदेहानन्द सरस्वति *तिवारीमहाराज , के तत्वावधान में*
*विशाल*
 *पौधरोपण एवं*
*षोषखड्डा = रेनवाटर हार्वेस्टिंग , ,ओर प्रीय मित्रों, अनुयायियों ,और सदस्यों *को हम*
*स्वामिशिशुविदेहानन्दस्वामिशिशुसत्यविदेहानन्द सरस्वति* *तिवारीमहाराज*
*आवाहन करते है*.. 

*शिवलिंगम् निर्माण में शामिल हुए।*

*।। अथातों  भक्त जिद्न्यासा।।*

*माँ मिराबाई हरीकिसन तिवारि* *द्वारा*
 सौ बजाज को *नंबर २ का बेलवृक्ष का* ( १९५६८०२) का पौधा प्रदान कीया ।
*शक्तिपिठ* मे और भी सकारात्मकता के साथ *वृक्ष प्रदानीय कार्य*
इस कार्य का क्रम है , *सम्ब्न्धीत व्यकति, समूह* , सन्गठन ,को वह
*पौधै*
*वितरित करना जो नंबर डाले* हुए हो ,और फिर *सम्ब्न्धीत व्यक्ति, समुह या* *सन्गठन के नामरूप की* *रजिस्टर में उल्लेखना् ,वृक्ष का नंबर*
उनकी रजीस्टर मे साइन , *उनका पूर्ण नामपता*,जिससे भविष्य में *अनुगमन् कर सकें* ,अवलोकन कर सकें ,और *जल* *सन्रक्षण भी सुनिश्चित करसके*।
*वह केवल् एक पौधा नहीं* *है*वहशक्तिपिठ मे *निर्माणित्*
*संवर्धित*
*एक*
*सदस्य*
*है*
*मित्रों*
*यहसब*
*आपके स'स्नेह और सहयोग के*
*कारण हो रहा है*

*संसार के विभीन्न विषयक् समस्या पर पन्चान्ग*
*देखने आते है।।*
और शिवलिंगम् निर्माण मे शामीलहुऐ

॥ अथातों   बरसात  जिदन्यासा ।।

यह कहना अतिशयोक्ति होगी की संस्कृत माह  फागुन का नाम बदलकर
आषाढ़
कर दिया जाऐ , लेकिन पिछले चार,पाँच वर्षो  से फागुन और चैत्र माह के मध्य
खुब झमाझम बारीष होती है और....आषाढ़ आतेआते    बादल    गांवों और खेतों का रास्ता ही भुल जाते है।
और भी जादा चिन्तीत् करनेवाला प्रश्न यह है की बारिश का तिव्र बन रहा
डकैत सा स्वभाव् है ,,यह लगातार पाँचवा ( चौदहवाँ ) वर्षे है की वह  अपराधी की तरह आती है और भगौड़े अपराधी कि तरह ,और आध पौने घन्टे मुसलाधार   बरस   करके निकल जाती है ।
गोवा , महाराष्ट्र , केरल , तामिलनाडु , कर्नाटक , उत्तर भारत में उत्तराखण्ड ,जम्मू कश्मीर , बिहार , बंगाल में वर्षा का अनिश्चित आक्रामक तेवर रहरह कर देखने को मिल रहा हैं ,हद तो यह है कि देश के कीसी प्रदेश के एक हिस्से में  अतिवृष्टि भयावह खतरा पैदा हो जाता है ,और उसी प्रदेश के दुसरे इलाके मे   भयावह सुखा  दिखाइ देता है
एक बात पिछले कई वर्षो से देखी जा रही हैं कि मानसुन के आते ही
मौसम विभाग सहीत देश कि तमाम एजन्सीयां ,जो मानसुन भविष्यवाणीयाँ करती हैं  मानसुन सामान्य रहने की बात कहने लगती है
लेकिन देखने वाली बात यह है कि मानसुन सामान्य रहने के बाद भी

देश के तमाम् हिस्से सुखे से जुझ़ रहे होते है ,मात्रा की हिसाब् से देखें तो बारिश कोई कम नही हो रही ,उलटे कुछ बढ़ी ही हैं ,

लेकिन प्रश्न यह है कि मानसुन मे ज्यादा बारिश होने के बाद भी
कई इलाकों और प्रदेशों को सुखे की मार    क्यों    झेलनी पड़ रही हैं।

पिछले कुछ साल से बारीश का  ट्रेन्ड़  बहुत तेजी से बढ़ रहा है ,यह सिर्फ हमारे यहाँ ही नही हो रहा हे , पाकिस्तान, बान्गलादेश , नेपाल् ,श्रीलन्का, चिन ,और पुरे युरोप तक मे ऐसा हो रहा है।बारीश के ईस बदलते पैटर्न से  साफसाफ बदलाव दिख रहा है, बारीश के ईस बदलतें पैटर्न से सिर्फ
लोगों को ही परेशानी नहीं हो रही है , ईससे  हमारी कृषी खासकर ईसखेती की   उत्पादकता  पर असर पड़ रहा है।

हम सब जानते है कि बारीश हमारी   अर्थव्यवस्था का अहम हिस्सा है ।

देश की   जीड़ीपी में कृषी  क्षेत्र की करीब 17 फीसदी  जबकि
ग्रामीण अर्थव्यवस्था में 35 से 40 फीसदी से ज्यादा हिस्सेदारी है ।

मौसमविभाग की माने तो पिछले 66 वर्षो मे देश मे  औसत या सामान्य बारिश 95 से 103 फीसदी के बीच रही है ।

देश मे जीतनी बारिश साल भर मे होती है उसमे से 70 से 79 प्रतिशत  मानसुन   मे होती है ।

मध्य और उत्तर पश्चिमी भारत मे तो  मानसुन  मे होनेवाली बारिश साल की कुल बारिश का 89 फीसदी तक होती है  लेकिन... पिछले 16--17--साल से  मानसुनी  बारिश  का यह  आँकडा़  गड़बड़ाने लगी है ।

पर्यावरणिय लिहाज से बहुत    संवेदनशील  हिमालयी क्षेत्र मे भी
बारिश का मिजाज बहुत तेजी से बदल रहा है , ऊत्तराखण्ड मे ईसे आम लोगों के स्तर तक  महसुस  किया जा रहा है।

तकनीकी रूप से देखा जाऐ तो  बारिश औसत के अनुरूप ही हो रही हैं ,
लेकिन ईसका अब पहले जैसा पँटर्न नही रहा है, एक जमाने में बारिश के दिनों में पहाड़ो मे लगनेवाला स्त्झ्ड़प्त्झ्ड़् अर्थात सात से दस दिनों तक लगातार रिमझिम होने वाली बारिश ,या युपीबिहार मे लगनेवाली झड़ी
किस्सेकहानियों की बात होकर रह गई है ।
इनकी जगह कम समय मे होनेवाली मुसलाधार बारिश ने ले ली है ।

बाढ़ की बढ़ती विभीषिका  ईसी का नतीजा है ।
हमारे गणित के हिसाब् से यह  " भुमण्डलीय औष्णिकरण " याने Global warming के चलते पैदा हुई है ।
ईस पँटर्न को रोकने का अगर  गम्भीर प्रयास् न किया गया तो यह पृथ्वी प्लँनेट समाप्त हो जाऐगा ।

और

हमारे ( हम Global warming पर  1988_1994___ से कार्य कर रहे हैं, हमारे सदसदगुरुदेव अखण्डानंदत्रिलोकचंदव्यास जी ने ही ईसलीए हमे ' सौरमण्डलेश्वर ' की उपाधि प्रदान की) हमारे मुताबिक अगर पुरे  मानसुन
के सीजन मे 130--160--- घन्टो तक धीमी  और  संयमीत  बारिश नहीं होती  तो  धरती  का  भू--जल  रिचार्ज नही होता ।
ईसीलीए धीमी बारिश का होना विश्व के अस्तित्व के लिए बहुत जरुरी है ।

दरअसल जो बारिश पीछले 15-16- वर्षो से उसकी तीव्रता मे 14--15-- फीसदी की बढो़त्तरी हुई है , इसको फिर से पुरानी गति पर लाने के लिए
वैश्विक औष्णिकरण और Climate change को बढावा देनेवाली
गतीविधियां ' खास तौर पर मानवजनित कारकों ' पर  अन्कुश लगाना
होगा , सबसे मुख्य बात है कि हमे प्रकृति के साथ  ' एडजेस्टमेन्ट् '
करना पड़ेगा ।। प्रकृति के अनुरूप आचरण करना पड़ेगा ,तभी वर्षा का बिगडता मिजाज सन्तुलित लद एवं समयबद्ध हो सकता है।

ईसके लिऐ हमने " Swamishishuvidehanand sarswati tiwari Maharaj karanJaLad Experiment " 99999 करोड़ ,हमारा बनाया हुआ श्रीदुर्गाकरुणास्तवस्तोत्रजगतगुरूस्रोत्र के 'निन्यान्नबे हजारृनौसौ निव्यान्नबे पाठ्  यह  कार्यक्रम बनाया है, इसके घरघर पाठ् एवं 
हमारी बनाई विधीद्वारा  हवन   करना चाहिए।।
 सभी लोग जुड़ जाऐ ।।
और
शिवलिंगम् निर्माण में शामील हुऐ ।।

Sunday 22 July 2018

मरता हुआ देश हिन्दुस्तान...

आज हीन्दुस्थान एक मरता हुआ देश है

यहाँ की सरकार अन्धाधुन्ध वृक्षों को काटरही है रास्तें बड़े करने हेतू ,और दुसरीतरफ करोड़ों वृक्ष लगाने की योजनाओं पर अन्धाधुन्ध पैसा खर्च हो रहा है ,

यह भी नही मालुम ईन भोन्दु राजनितीज्ञों को कि

कौनसे वृक्ष लगाने चाहिए

और

पब्लिक

भी

बेवकुफों

की

तरह

कोई भी वृक्ष लगा रही है ,जो वृक्ष

लगाऐं जा
रहे
है
वें

Global   warming

को
और भी
जादा

बढा़ने

वालें
है ।
कुछेक वृक्ष है जो विव्व्द्मिज्ञ्ण्ड्द्भैषणात्मक रुप से ही लगाने होते है, तभी ग्लोबल वार्मिंग पर वह कार्य करेंगे , लेकिन ईन भोन्दुओं को यह कौन समझाऐ ,मनमाने ढंग से कियाहुआ वृक्षारोपण यह आगे की पिढियों के लिए घातक ही होगा । क्योंकि ईससे न केवल् Carbon Dioxide बल्कि मिथेन और Helium भी जादा प्रमाण् मे उत्सर्जिन होकर ईस Planet को पूरी तरह ' बियाबान' बना देंगे।

Monday 16 July 2018

पराविज्ञान एव़ं....

युग चाहे कोई भी हो, सदैव जीवन-मूल्य ही इन्सान को सभ्य और सुसंस्कृत बनाते है।  जीवन मूल्य ही हमें प्राणी से इन्सान बनाते है। नैतिक जीवन मूल्य ही शान्त और संतुष्ट से जीवन जीने का मार्ग प्रशस्त करते है। किन्तु हमारे जीवन में बरसों के जमे जमाए उटपटांग आचार विचार के कारण, जीवन में सार्थक जीवन मूल्यो को स्थापित करना अत्यंत कष्टकर होता है।

हमारे आचार विचार इतने सुविधाभोगी हो चले है कि आचारों में विकार भी सहज सामान्य ग्राह्य हो गए है। सदाचार धारण करना कठिन ही नहीं, दुष्कर प्रतीत होता है। तब हम घोषणा ही कर देते है कि साधारण से जीवन में ऐसे सत्कर्मों को अपनाना असम्भव है। और फिर शुरू हो जाते है हमारे बहाने …
‘आज के कलयुग में भला यह सम्भव है?’ या ‘तब तो फिर जीना ही छोड दें?’। ‘आज कौन है जो यह सब निभा सकता है?’, ऐसे आदर्श सदाचारों को अंगीकार कर कोई जिन्दा ही नहीं रह सकता। वगैरह …

ऐसी दशा में कोई सदाचारी मिल भी जाय तो हमारे मन में संशय ही उत्पन्न होता है, आज के जमाने में ऐसा कोई हो ही नहीं सकता, शायद यह दिखावा मात्र है। यदि उस संशय का समाधान भी हो जाय, और किसी सदाचारी से मिलना भी हो जाय तब भी उसे संदिग्ध साबित करने का हमारा प्रयास और भी प्रबल हो जाता है। हम अपनी बुराईयों को सदैव ढककर ही रखना चाहते है। जो थोड़ी सी अच्छाईयां हो तो उसे तिल का ताड़ बनाकर प्रस्तुत करते है। किसी अन्य में हमें हमसे अधिक अच्छाईयां बर्दास्त नहीं होती और हम उसे झूठा करार दे देते है।

बुराईयां ढलान का मार्ग होती है जबकि अच्छाईयां चढाई का कठिन मार्ग। इसलिए बुराई की तरफ ढल जाना सहज, सरल और आसान होता है जबकि अच्छाई की तरफ बढना अति कठिन और श्रमयुक्त पुरूषार्थ।

मुश्किल यह है कि अच्छा कहलाने का यश सभी लेना चाहते है, पर जब कठिन श्रम और बलिदान की बात आती है तो हम मुफ्त श्रेय का शोर्ट-कट ढूँढते है। किन्तु सदाचार और गुणवर्धन के श्रम व त्याग का कोई शोर्ट-कट विकल्प नहीं होता। यही वह कारण हैं जब हमारे सम्मुख सद्विचार आते है तो अतिशय लुभावने प्रतीत होने के उपरान्त भी सहसा मुंह से निकल पडता है ‘इस पर चलना बड़ा कठिन है’।

यह हमारे सुविधाभोगी मानस की ही प्रतिक्रिया होती है। हम कठिन, कष्टकर, त्यागमय प्रक्रिया से गुजरना नहीं चाहते। भले मानव में आत्मविश्वास और मनोबल  की अनंत शक्तियां विद्यमान होती है। प्रमाद वश हम उसका उपयोग नहीं करते। जबकि जरूरत मात्र जीवन-मूल्यों को स्वीकार करने के लिए इस मन को सजग रखने भर की होती है। मनोबल यदि एकबार जग गया तो कैसे भी दुष्कर गुण हो अंगीकार करना सरल ही नहीं, मजेदार भी बनता चला जाता है।

यदि एक बार सदाचारों उपजे शान्त जीवन का चस्का लग जाय, सारी कठिनाईयां परिवर्तित होकर हमारे ज्वलंत मनोरथ में तब्दिल हो जाती है। फिर तो यह शान्ति और संतुष्टि, उत्तरोत्तर उत्कृष्ट उँचाई सर करने की मानसिक उर्ज़ा देती रहती है। जैसे एड्वेन्चर का रोमांच हमें दुर्गम रास्ते और शिखर तक सर करवा देता है, यह मनोवृति हमें प्रतिकूलता में भी अपार आनन्द प्रदान करती है। जब ऐसे मनोरथ इष्ट बन जाए तो सद्गुण अंगीकार कर जीवन को मूल्यवान बनाना कोई असम्भव कार्य नही। मनुष्य का जीवन एक पौधे के समान ही है । उसी तरह वह एक छोटे - से बीज से पैदा होकर फैलता और बढ़ता है । इस सम्बन्ध में कि कैसे , क्यों , कितना आदि प्रश्नों का ऴ स्वयं में एक रोचक परिक्षण है ।
! कैसी विचित्र माया है प्रकृति माता की ! एक सूक्ष्म - सी कोशिका से भारी - भरकम मानव का निर्माण हो जाता है । उस नन्हें - से निर्दोष - भोले - मुस्कुराते प्राणी को किसी बात की चिन्ता नहीं होती । भोजन और रक्षा की पूरी व्यवस्था स्वयं प्रकृति माता करती है । फिर अवस्था के साथ - साथ जिम्मेदारियाँ बढ़ने लगती हैं और वही माँ, जिसने उसे दूध पिलाकर बड़ा किया और सब प्रकार रक्षा कर उसे जीने का मार्ग दर्शाया है , धीरे - धीरे अपने कार्य में ढील देना आरम्भ कर देती है । अब उसे इस बात की शिक्षा दी जाती है , कि बच्चा अपने अंगों से स्वयं काम ले, और सोच - समझकर अपने पाँवों पर खड़ा होना सीखे ।

इस प्रकार हमारा तन अपने हिसाब से एक पूर्ण एकक के रूप में प्रकट होता है और मन अपने ढंग से उन्नति करता है , किन्तु मन के संसार में प्रकृति कुछ न कुछ कमी छोड़ देती है , जिसे मनुष्य जीवन पर्यन्त पूरी करने का यत्न करता  रहता है , और कदाचित् यही वह त्रुटि होती है , जो उसके जीवन को सोद्देश्य बना देती है । इसी से उसमें सोचने की शक्ति उत्पन्न होती है और इसी कारण वह अपने जीवन के रूप बनाता - बिगाड़ता रहता है ।
शारीरिक जीवन तो जन्म के साथ ही आरम्भ हो जाता है , किन्तु मन भी अपना काम शुरू करने में देर नहीं लगाता । माँ की गोद में ही मन की आधारशिलाएँ रखी जाने लगती है । भूख -प्यास , सोना - जागना , प्यार - रोष , दुःख - सुख आदि का व्यवहार समझ में आने लग जाता है , और जितना वह बाहर उन्नति करता है , उससे भी अधिक गति से भीतर बढ़ता है । तन की बढ़ोतरी तो दिखाई पड़ती है , परन्तु मन का परिवर्तनपरिवर्धन दृष्टिगोचर नहीं होता , जैसे सीर के अंग रंग - रूप लेते हैं, वैसे ही मन भी अपने व्यक्तित्व का निर्माण करता है । अनेक स्थितियाँ बनती हैं । कभी भीतरी शक्तियाँ जो मारती है , कभी बाहरी वातावरण भारी पड़ जाता है । यह कभी इन्द्रियों के बस में हो जाता है और कभी शरीर को उसकी अपनी इच्छानुसार चलने को विवश कर देता है ।

मन का सम्बन्ध संसार के साथ शरीर के माध्यम से ही बनता है । इन्द्रियों द्वारा ही इसे बाहर की दुनिया का ज्ञान  प्राप्त होता है । यह कभी - कभी अपने आस - पास सब चीजों पर शासन करने का प्रयास करता है , किन्तु भौतिक बाधाएँ मार्ग अवरुद्ध कर देती है । अन्त में तन और मन एक समझोता कर लेते हैं । पौधे की जड़े भले ही कितनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएँ , धरती के भीतर होने के कारण दृष्टिगोचर नहीं होतीं । इसी प्रकार मन की क्रिया और उसके फलित होने की प्रक्रिया आँखों से ओझल रहती है।
मन तो तन का एक प्रतिबिम्ब है । यह छाया भले ही छूईं न जा सके , किन्तु इसके अस्तित्व में कोई सन्देह नहीं । यह सत्य है कि परछाईं का स्वरूप शरीर के अंगों की तरह स्थूल नहीं होता , परनई इसके प्रभाव को अस्वीकार नहीं किया जा सकता ।

मन एक मन्दिर है , एक मूर्ति है । मन आस - पास के सब कामों को देखता है , परखता है और शरीर का हिसाब लेता है । उसकी आँखों से कुछ भी छूपता नहीं । मनुष्य का शरीर किसी बात को माने या न माने , मन उसे पहचान लेता है ।
 ! मन के भीतर उठी हर लहर शरीर के अंगों को प्रभावित करती है। वह उसे गति देती है और सच पूछो , तो शरीर के अनेक कार्यों का कारण बनती है । जब मन के अन्तर में बवण्डर उठता है तो शरीर में थिरकन  पैदा होती है , वह मौज में आ जाता है , चोटें लगाता है और खाता भी है । इनके वेग और मात्र का निर्णय प्रायः मन ही करता है ।

मन अपना काम तो किसी विचार के बल पर करता है , किन्तु उसका विस्तार बहुत होता है । फिर अन्तस् की शक्तियाँ उभरकर स्वभाव बनने लगती हैं और अनुभव का रूप लेती हैं । इनमें कुछ ऐसी भी होती हैं , जो बिना किसी विचार अथवा इच्छा के स्वतः आ जाती हैं और वैसे ही चली भी जाती हैं । शरीर को मन के विस्तार का बोध होता है । अतः वह इसे बाँध रखने का यत्न निरन्तर करता है । उसे आशंका रहती हैं कि मन स्वच्छन्द हो गया , तो उससे अधिक क्षति शरीर को सहनी होगी । कई बार शरीर बेचारा अपनी पीड़ा को प्रकट नहीं होने देता कि कहीं मन आवेश में आकर कुछ कर न बैठे ।

परन्तु मन भी शरीर का आदर करता है । वह जानता है कि उसे शरीर के साथ रहना है, तो उसका ध्यान रखना ही होगा ।  कारण खोजने का यत्न कर रहे हैं । यदि व्यक्तित्व में दृढ़ता और प्रौड़ता होती है , तो जीवन में कुछ अनुभवों की मिट्टी से भी एक सुन्दर मूरत बना ली जाती है , किन्तु व्यक्ति में अधूरापन है और तम - मन की आपस में नहीं बनती , तो अच्छी - भली सूरत भी भौंडी हो जाती है ।
प्रकृति भी कितनी विचित्र है कि प्रकट में तो हर इन्सान एक - सा है - एक ही सिर , एक ही नाक , दो पाँव , दो हाथ सबमें समान होते हैं , किन्तु अन्तर में एक - दूसरे से इतने भिन्न कि उनकी किसी बात में भी मेल नहीं होता । हाँ , तन और मन के मिलाप की समानता सबमें अवश्य होती है , और उसका रूप भी विचित्र होता है , जिसे न आज तक कोई सही माप पाया है और न भविष्य में इसकी आशा है ।
! भावुक और समझदार लोगों में तन और मन का ताल - मेल बड़ा रोचक होता है । एक ओर वह सोच - समझकर शान्तिपूर्णक लिखने - पढ़ने वाला इन्सान होता है , तो दूसरी ओर बेचैन और भावनाओं में उलझा हुआ , तीसरी ओर वही व्यक्ति जीवन के संघर्ष में ऐसा फँसा हुआ कि खाने के लाले { भूखमरी } पड़े हों । वह कभी एक को भूलता है तो कभी दूसरे को। कभी एक रंग उभरता है , कभी दूसरा । तीनों रूप एक - दूसरे को देखते हैं , जानते भी हैं , किन्तु एक - दूसरे से आँख मिलाने का साहस नहीं करते और समझौते करते रहते हैं । अपना कोई मत नहीं , केवल तन - मन के समझौते हैं । उनका हिसाब कोई नहीं लगा सकता । जीवन नैया जहाँ लगी , वहीं ठिकाना हो गया । जीवन में हर कार्य के लिए ऊर्जा की अपेक्षा होती है , और इसे पैदा करने के लिए मन एक अंगड़ाई लेता है । मानवी भावनाएँ गतिशील हो जाती हैं । उनकी यह क्रिया शरीर को प्रभावित करती है , जिससे वह कुछ करने को तैयार हो जाता है , परन्तु इस स्थिति में तन का बड़ा दायित्व होता है , उसे मन की इस गति को वश में रखना होता है । वह अपनी झोंक में आ जाये , तो न जाने क्या कर बैठे। सब लोग नित्य किसी पर बलिदान होते रहेंगे या किसी को कच्चा ही चबा जायेंगे ।
 मन की इस शक्ति को वश में रखने और उसका समुचित उपयोग करने के लिए ही शिक्षा , धर्म और विज्ञान की आवश्यकता होती है। यही वह शक्ति है , जिसका उचित उपयोग दुःख में भी मुँह पर लाली ले आता है और अनुचित व्यवहार इन्सान का लहू पी लेता है , परन्तु इसकी अभाव्यक्ति होना आवश्यक है , नहीं तो यह शक्ति व्यक्ति की भीतरी भावना को तोड़ना  आरम्भ कर देती है । अधिकांश मानसिक रोग इसीके कारण पैदा होते हैं , अन्तर का टूटना किसी को दिखाई तो देता नहीं , पर वह व्यक्ति स्वयं और उसके निकट के समझदार लोग इसे अवश्य अनुभव कर सकते हैं ।  उस समय प्रेतविद्या अथवा आत्म विद्या पर शोध करने की व्यवस्था विश्व विद्यालयों में नहीं थी। अतः मैंने व्यक्तिगत रूप से इस विषय पर खोज करने का निश्चय कर लिया। सबसे पहले मैंने इन दोनों विषयों से सम्बंधित तमाम पुस्तकों तथा हस्त लिखित ग्रन्थों का संग्रह किया। ऐसी पुस्तकों का जो संग्रह मेरे पास है, वैसा शायद ही किसीके पास हो। खोज के सिलसिले में मैंने यह जाना कि आत्माओं के कई भेद हैं, जिनमें जीवात्मा, मृतात्मा, प्रेतात्मा और सूक्ष्मात्मा--ये चार मुख्य हैं।
       मृत्यु के बाद मनुष्य कहाँ जाता है और उसकी आत्मा किस अवस्था में रहती है ?--इस विषय में मुझे बचपन से कौतूहल रहा है। सच तो यह है कि मृत्यु के विषय में  भय और शोक की भावना से कहीं अधिक जिज्ञासा का भाव मेरे मन में रहा है। शायद इसी कारण मैंने परामनोविज्ञान में एम्. ए. किया और शोध शुरू किया।
       वास्तव में मृत्यु जीवन का अन्त नहीं। मृत्यु के बाद भी जीवन है। जैसे दिनभर के श्रम के बाद नींद आवश्यक है, उसी प्रकार जीवनभर के परिश्रम और भाग-दौड़ के  बाद मृत्यु आवश्यक है। मृत्यु जीवनभर की थकान के बाद हमें विश्राम और शान्ति प्रदान करती है जिसके फल स्वरुप हम पुनः तरोताजा होकर नया जीवन शुरू करते हैं।
       मेरी दृष्टि में मृत्यु का अर्थ है--गहरी नींद जिससे जागने पर हम नया जीवन, नया वातावरण और नया परिवार पाते हैं, फिर हमारी नयी यात्रा शुरू होती है। स्वर्ग-
नर्क केवल कल्पना मात्र है। शास्त्रों में इनकी कल्पना इसलिए की गयी है कि लोग पाप से बचें और सत् कार्य की ओर प्रवृत्त हों। नर्क का भय उन्हें दुष्कार्य से बचाएगा और स्वर्ग सुख की लालसा उन्हें पुण्य कार्य या सत् कार्य की ओर प्रेरित करेगी। जो कुछ भी हैं--वे हमारे विचार हैं, हमारी भावनाएं हैं जिनके ही अनुसार मृत्यु उपरांत हमारे लिए वातावरण तैयार होता है।
      मृत्यु एक मंगलकारी क्षण है, एक सुखद और आनंदमय अनुभव है। मगर हम उसे अपने कुसंस्कार, वासना, लोभ-लालच आदि के कारण दारुण और कष्टमय बना लेते हैं। इन्ही सबका संस्कार हमारी आत्मा पर पड़ता रहता है जिससे हम मृत्यु के अज्ञात भय से त्रस्त रहते हैं।
       मृत्यु के समय एक नीरव विस्फोट के साथ स्थूल शरीर के परमाणुओं का विघटन शुरू हो जाता है और शरीर को जला देने या ज़मीन में गाड़ देने के बाद भी ये परमाणु वातावरण में बिखरे रहते हैं। लेकिन उनमें फिर से उसी आकृति में एकत्र होने की प्रवृत्ति तीव्र रहती है। साथ ही इनमें मनुष्य की अतृप्त भोग-वासनाओं की लालसा भी बनी रहती है। इसी स्थिति को 'प्रेतात्मा' कहते हैं। प्रेतात्मा का शरीर आकाशीय वासनामय होता है। मृत्यु के बाद और प्रेतात्मा के बनने की पूर्व की अल्प अवधि की अवस्था को 'मृतात्मा' कहते हैं। मृतात्मा और प्रेतात्मा में बस थोड़ा-सा ही अन्तर है। वासना और कामना अच्छी-बुरी दोनों प्रकार की होती हैं। स्थूल शरीर को छोड़कर जितने भी शरीर हैं, सब भोग शरीर हैं। मृत आत्माओं के भी शरीर भोग शरीर हैं। वे अपनी वासनाओं-कामनाओं की पूर्ति के लिए जीवित व्यक्ति का सहारा लेती हैं। मगर उन्हीं व्यक्तियों का जिनका हृदय दुर्बल और जिनके विचार, भाव, संस्कार आदि उनसे मिलते-जुलते हैं।
      मृतात्माओं का शरीर आकाशीय होने के कारण उनकी गति प्रकाश की गति के समान होती है। वे एक क्षण में हज़ारों मील  की दूरी तय कर लेती हैं।
      जीवित व्यक्तियों के शरीर में मृतात्माएँ या प्रेतात्माएँ कैसे प्रवेश करती हैं ?
     मृतात्माएँ अपने संस्कार और अपनी  वासनाओं को जिस व्यक्ति में पाती हैं, उसीके माध्यम से उसके शरीर में प्रवेश कर अपनी कामना पूर्ति कर लिया करती हैं। उदहारण के लिए--जैसे किसी व्यक्ति को पढ़ने-लिखने का शौक अधिक है, वह उसका संस्कार बन गया। उसमें पढ़ना-लिखना उसकी वासना कहलायेगी। जब कभी वह अपने संस्कार या अपनी वासना के अनुसार पढ़ने-लिखने बैठेगा, उस समय कोई मृतात्मा जिसकी भी वही वासना रही है, तत्काल उस व्यक्ति की ओर आकर्षित होगी और वासना और संस्कार के ही माध्यम से उसके शरीर में प्रवेश कर अपनी वासना की पूर्ति कर लेगी। दूसरी ओर उस व्यक्ति की हालत यह होगी कि वह उस समय का पढ़ा-लिखा भूल जायेगा। किसी भी प्रकार का उसमें अपना संस्कार न बन पायेगा।
       इसी प्रकार अन्य वासना, कामना और संस्कार के विषय में भी समझना चाहिए। हमारी जिस वासना को मृतात्माएँ भोगती हैं, उसका परिणाम हमारे लिए कुछ भी नहीं होता। इसके विपरीत, कुछ समय के लिए उस वासना के प्रति हमारे मन में अरुचि पैदा हो जाती है।
       प्रेतात्माओं के अपने  अलग ढंग हैं। वे जिस व्यक्ति को अपनी वासना-कामना अथवा अपने संस्कार के अनुकूल देखती हैं, तुरन्त सूक्ष्मतम प्राणवायु अर्थात्-ईथर के माध्यम से उसके शरीर में प्रवेश कर जाती हैं और अपनी वासना को संतुष्ट करने लग जाती हैं। इसीको 'प्रेतबाधा' कहते हैं। ऐसे व्यक्ति की बाह्य चेतना को प्रेतात्माएँ लुप्त कर उसकी अंतर्चेतना को प्रभावित कर अपनी इच्छानुसार उस व्यक्ति से काम करवाती हैं। इनके कार्य, विचार, भाव उसी व्यक्ति जैसे होते हैं जिस पर वह आरूढ़ होती है।
     कहने की आवश्यकता नहीं, इस विषय में पाश्चात्य देशों में अनेक अनुसन्धान हो रहे हैं। परामनोविज्ञान के हज़ारों केंद्र खुल चुके हैं। वास्तव में यह एक अत्यन्त जटिल और गहन विषय है जिसकी विवेचना थोड़े से शब्दों में नहीं की जा सकती।
       अच्छे संस्कार और अच्छी वासनाओं और कामनाओं वाली मृतात्माएँ और प्रेतात्माएँ तो पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से बाहर रहती हैं मगर जो कुत्सित भावनाओं, वासनाओं तथा बुरे संस्कार की होती हैं, वे गुरुत्वाकर्षण के भीतर मानवीय वातावरण में ही चक्कर लगाया करती हैं।
      इन दोनों प्रकार की आत्माओं को कब और किस अवसर पर मानवीय शरीर मिलेगा और वे कब संसार में लौटेंगी ?--इस विषय में कुछ भी नहीं बतलाया जा सकता।
       मगर यह बात सच है कि संसार के प्रति आकर्षण और मनुष्य से संपर्क स्थापित करने की लालसा बराबर उनमें बनी रहती है। वे बराबर ऐसे लोगों की खोज में रहती हैं जिनसे उनकी वासना या उनके संस्कार मिलते-जुलते हों। जो व्यक्ति जिस अवस्था में जिस प्रकृति या स्वभाव का होता है, उसकी मृतात्मा या प्रेतात्मा भी उसी स्वभाव की होती है।
       सभी प्रकार की आत्माओं से संपर्क स्थापित करने, उनकी मति-गति का पता लगाने और उनसे लौकिक सहायता प्राप्त के लिए तंत्रशास्त्र में कुल सोलह प्रकार की क्रियाएँ अथवा साधनाएं हैं। पश्चिम के देशों में इसके लिए 'प्लेन चिट' का अविष्कार हुआ है। मगर यह साधन पूर्ण सफल नहीं है। इसमें धोखा है। जिस मृतात्मा को बुलाने के लिए प्रयोग किया जाता है, वह स्वयं न आकर, उसके स्थान पर उनकी नक़ल करती हुई दूसरी आस-पास की भटकने वाली मामूली किस्म की आत्मा आ जाती हैं। मृतात्मा यदि बुरे विचारों, भावों और संस्कारों की हुई तो उनके लिए किसी भी साधन-पद्धति का प्रयोग करते समय मन की एकाग्रता की कम ही आवश्यकता पड़ती है मगर जो ऊँचे संस्कार, भाव-विचार और सद्भावना की आत्माएं हैं, उनको आकर्षित करने के लिए अत्यधिक मन की एकाग्रता और विचारों की स्थिरता की आवश्यकता पड़ती है। क्योंकि एकमात्र 'मन' ही ऐसी शक्ति है जिससे आकर्षित होकर सभी प्रकार की आत्माएं स्थूल, लौकिक अथवा पार्थिव जगत में प्रकट हो सकती हैं।
       सबसे पहले यौगिक क्रियाओं द्वारा अपने मन को एकाग्र और शक्तिशाली बनाना पड़ता है। जब उसमें भरपूर सफलता मिल जाती है, तो तान्त्रिक पद्धति के आधार पर उनसे संपर्क स्थापित करने की चेष्टा की जाती है। भिन्न-भिन्न आत्माओं से संपर्क स्थापित करने की भिन्न भिन्न तान्त्रिक पद्धतियाँ हैं।