Friday 11 August 2017

प्राण्व्यान्ऊदान्समान्अपान्-+++++

केवल बहुश्रुत होने के लिये , बहुत - सी जानकारी बटोरने के लिये पूछने वाले को उत्तर देना व्यर्थ होता है , खासकर सूक्ष्म विषयों के बारे में उसे बताने का कोई उपयोग नहीं क्योंकि वह उत्तर को रट - मात्र सकता है , समझ नहीं सकता , कारण कि वह साधक न होने से समझने के लिये आवश्यक यत्न ही नहीं करेगा । आजकल कई लोग शास्त्र की अनेक " गलतियों " की सूची याद रखते हैं , कोई शास्त्रवेत्ता मिले तो उससे उन्हीं के बारे में पूछते हैं । उन्हें शास्त्र श्रद्धा नहीं है अतः ऐसा नहीं कि उन्हें कोई साधना करनी है और उस गलती को देखकर वे न कर पा रहे हों , उन्हें समझा दें कि वह गलती नहीं है तो साधना करें ; उन्हें तो केवल शास्त्र गलत है यही बोलने का शोक हैं अतः एक शंका का समाधान कर भी दें तो दस की फ़हरिस्त तैयार है , जिन विषयों से उनका कोई सम्बन्ध नहीं , जिन ग्रन्थों का उन्होंने कभी अध्ययन किया नहीं उनकी दो -  चार बातों के बारे में शंका करते हैं । ऐसों को समझाने का प्रयास बुद्धिमान् नहीं करते, उनकी उपेक्षा ही करते हैं । किन्तु कौशल्य ऐसा नहीं था , उपासक था , विविदिषु था , साधनापूर्वक आत्मकल्याण के लिये यत्नशील था , इसलिये महर्षि पिप्पलाद संतुष्ट हुए । सामान्य प्रश्नों का जवाब तो सामान्य विद्वान् भी दे सकते हैं , जब किसी विशेष बात को पूछा जाता है तब गुरु को अधिक प्रसन्नता होती है कि " इसका जवाब साधारण व्यक्ति नहीं दे सकता , मैं दे पा रहा हूँ और इसे समझाने लालक शिष्य मिला तो इस ज्ञान की परम्परा रह जायेगी । " अनेक विद्याएँ इसीलिये लुप्त हो जाती हैं कि योग्य शिष्य उपलब्ध नहीं होते अतः श्रेष्ठ अध्येता से अध्यापक विशेष प्रसन्न होता है ।

नारायण ! प्राण किससे पैदा होता है इसका उत्तर दिया महर्षि ने " आत्मन एष प्राणो जायते , यथेषा पुरुषे छायैतस्मिन्नेतदाततम् " कि यह प्राण परमात्मा से उत्पन्न होता है । जैसे प्रकाश के आगे कोई पुरुष खड़ा हो तो उसकी परछायी पड़ती है वैसे परमात्मा पर प्राण निर्भर है । पुरुष पर छाया निर्भर है यह स्पष्ट ही है । इस उत्तर का और विस्तार से वर्णन करते हैं : परमात्मा में कोई  परिवर्तन न आने पर भी उसी से प्राण उत्पन्न हुआ । जैसे अपने शरीर में किसी विकार के बिना ही शरीर की छाया पैदा हो जाती है वैसे परमात्मा से प्राण की उत्पत्ति हुई है । यदि कहा जाये कि छाया तो मिथ्या होती है अतः कारण अपरिवर्तित रहे यह उचित है , तो उत्तर है कि प्राण भी आत्मा पर कल्पित ही है । छाया पड़ने के लिये दर्पण , प्रकाश आदि उपाधियों की तरह आत्मा की उपाधि माया है जिससे प्राणरूप परछायी पड़ती है ।

नारायण ! परमात्मा अपने में से ही प्राण को पैदा करता है , वही प्राण का निमित्त और उपादान दोनों है । कारण विकारी ही हो यह नियम नहीं क्योंकि जहाँ कार्य मिथ्या होता है वहाँ कारण निर्विकार रहता है यह लोकसिद्ध है । उपादान और निमित्त दोनों में कुछ - न - कुछ परिवर्तन के बिना सत्य कार्य नहीं पैदा होता लेकिन असत्य कार्य पैदा हो इसके लिये कोई परिवर्तन नहीं चाहिये । इसके लिये अनुभवसिद्ध उदाहरण छाया का दिया । शरीर की छाया शरीर से ही पैदा होती है पर उसके पैदा होने से शरीर में कोई परिवर्तन नहीं होता । व्यावहारिकता को स्पष्ट करने के लिये छाया का दृष्टान्त है। रज्जुसर्प की तरह छाया का बाध नहीं होता लेकिन उसकी  सत्ता शरीर की सत्ता के अधीन ही होने से उसका मिथ्यात्व समझ आ जाता है । छाया कुछ नहीं है यह नहीं कह सकते , वह कार्यकारी है जैसा कि ग्रहणादि में स्पष्ट है या प्रतिबिम्बरूप छाया में रोज अनुभव में आता है । इसी प्रकार प्राण भी व्यावहारिक है , कार्यकारी है फिर भी मिथ्या ही है । प्राण सौपाधिक भ्रान्ति है , माया उपाधि के रहते प्राणरूप भ्रम बना रहता है । अतः प्राण किससे पैदा होता है ? इसका उत्तर है कि मायारूप उपाधि रहते परमात्मा से ही प्राण पैदा होता है किन्तु प्राण और उसका पैदा होना दोनों मिथ्या हैं क्योंकि जिस उपाधि से यह पैदा होता है वही मिथ्या है ।

नारायण ! तृतीय प्रश्न का दूसरा भाग था कि प्राण शरीर में क्यों आता है । इसका श्रुति में जवाब है " मनोकृतेनायात्यस्मिञ्शरीरे " अर्थात् मन द्वारा संकल्पादिपूर्वक किये कर्म के कारण प्राण शरीर में आता है । इसे स्पष्ट करते हुए बताते हैं : मन द्वारा पूर्व कल्प में किया जो कर्म है उसी के कारण प्राण स्थूल शरीर में आता हैं । कल्पारम्भ में प्राण स्थूल देह में आता है तो पिछले कल्प के कर्मों के ही कारण । तदनन्तर तो इस कल्प के भी पूर्व जन्मों के कर्म अगले  जन्मों के प्रति कारण बनते रहते हैं । किं च प्रथम शरीरी अर्थात् हिरण्यगर्भ का तो पूर्वकल्प के कर्मवश ही इस कल्प में जन्म होता है , उसकी दृष्टि से पूर्वकल्प का कथन किया गया । कर्म संकल्पादिपूर्वक किया जाता है अतः मन का नाम लिया । कर्म के दौरान भी मन की सावधानी चाहिये । जो कर्म बिना मन के , असावधानी से , अनजान में होते हैं , उनका फल भोगना तो पड़ता है लेकिन शरीर ग्रहण कराने की सामर्थ्य उनमें नहीं होती । शरीर ग्रहण तो समझ - बूझकर किया कर्म कराते हैं , तदन्तर अनजान में किये कर्म भी फल देते हैं । द्वितीय भाग का उत्तर स्पष्ट हो गया कि मन से किये कर्म के कारण प्राण शरीर में आता है । कौन किस योनि में पैदा होगा इसके निर्णय में मानस कर्मरूप उपासना का प्राधान्य भी माना गया है , इऱिये भी मन का उल्लेख संगत है ।

नारायण ! प्रश्न का तीसरा भाग था कि प्राण को बाँट कर शरीर में कैसे रहता है ? इसके उत्तर में महर्षि पिप्पलाद ने कहा कि जैसे सम्राट् विभिन्न स्थानों पर अधिकारी नियुक्त कर देता है वैसे प्राण ने शरीर के विभिन्न स्थलों पर अलग - अलग कार्यों के लिये अपनी वृत्तियाँ नियुक्त कर दी हैं । यही उसका बैठकर  रहना है । इस उत्तर को थोड़ा और स्पष्ट करते हैं : जिस प्रकार सम्राट् अपने विभिन्न अधिकारियों को तत्तत् गाँवों में नियुक्त कर देता है उसी प्रकार जहाँ - जहाँ जिस कार्य की आवश्यकता है उसे करने के लिये वहाँ - वहाँ अपनी वृत्तियों को नियुक्त कर देता है । मल - मूत्र को शरीर से बाहर निकालने के लिये " अपानवृत्ति " को नीचे { गुदा में } में स्थापित करता है । प्राण नामक वृत्ति साँस चलाते हुए मुँह व नासिका में स्थित है । खाये हुए अन्न को सारे शरीर में समान रूप से फैला दे इस प्रयोजन से " समान " नामक वृत्ति शरीर के बीच में अर्थात् नाभि में स्थापित है । सिर के सात छेदों को भी अन्न से पोषित करता है अतः उनके भेद से समान सात प्रकार का हो जाता है ।

नारायण ! सारे राज्य पर शासन चलाने के लिये सर्वत्र राजशक्ति उपस्थित होनी आवश्यक है । अधिकारियों के माध्यम से राजा की शक्ति गाँव - गाँव में मौजूद होती है । ऐसे ही शरीर में सर्वत्र प्राण को उपस्थित रहना है अतः वह अपनी वृत्तियाँ नियुक्त कर देता है । राजा और अधिकारी व्यक्ति विभिन्न होते हैं , ऐसे पाँचों वृत्तियाँ प्राण से पृथक् नहीं है इतना दृष्टान्त से अन्तर है  किन्तु जैसे एक ही राजशक्ति सर्वत्र है वैसे एक ही प्राणशक्ति सर्वत्र है । अथवा जैसे एक हाथ से " गेयर " सम्भालते हैं , दूसरे से " स्टियरिंग " पकड़ते हैं , एक पैर " क्लच " पर रखते हैं , दूसरा " ऐक्सिलरेटर " पर रखते हैं यों अलग - अलग कार्यों के लिये अपने देहावयवों को काम में लेते हैं वैसे प्राण ने अपनी ही वृत्तियाँ तत्तत् कार्य में नियुक्त की हैं यह समझ सकते हैं । सभी वृत्तियों पर प्राण का नियन्त्रण एक जैसा रहता है । श्वास चलाने वाली वृत्ति का नाम भी प्राण है किन्तु है वह एक वृत्ति ही , उसे वृत्तिमान् प्राण जिसकी पाँचों वृत्तियाँ है वह नहीं समझ लेना चाहिये । श्वास कर्म अत्यन्त प्रधान होने से उसकी संपादक वृत्ति प्राण कही जाती है । समान वृत्ति शरीर में आवश्यकतानुसार अन्नादि के पोषक तत्त्वों को फैलाती है । होम में आहुति डालते हैं तो ज्वाला निकलती है , ऐसे ही जाठराग्नि में भोजन की आहुति डालते हैं तो ज्वाला लपटें निकलती हैं , वे ही सिर के सात छिद्रों में प्रकट हैं । अग्नि की सात लपटें मुण्डक उपनिषद् में भी कही हैं । सिर के सात छेद हैं - दो कान , दो आँखें , दो नासिका - छिद्र और मुख । इन्हें  शीर्षण्य अर्थात सिर में होने वाले प्राण भी कहते हैं । " समान " ही इनका पोषक है , वही सात ज्वालाओं का रूप लेकर इन तक आवश्यक आहार पहुँचाता है । गोलकभेद सात हैं , गोलकों की पुष्टि की दृष्टि से ही " समान " को सात भेदों वाला कहा गया है ।

नारायण ! " व्यान " नाडियों में व्याप्त रहता है अतः उपनिषद् ने यहाँ नाडी - संख्या बताकर उन नाड़ियों को " व्यान " का नियत स्थान कहा है

Saturday 5 August 2017

आदिशंकराचार्य +++

तप से चित्तभूमि तैयार होने पर श्रवण से तत्त्वबोध होता है जिसे योग से दृढ करने के लिये निर्विकल्प समाधि में स्थित रहा जाता है । द्वैताकार वृत्ति का अनुदय और अद्वैताकार वृत्ति की स्थिरता यहाँ समाधि है जिससे तत्त्वज्ञान हो जाता है , अज्ञान मिटा देता है । फिर प्रारब्धवश जब व्युत्थान होता है अर्थात् समाधि टूटती है , द्वैताकार वृत्ति बनती है तब भी विद्वान् को अद्वैत की याद हरदम कायम रहती है । द्वैत को मिथ्या जानने से उसकी प्रतीति के बावजूद वह याद रखता है कि सत्य अद्वैत ब्रह्म ही है । इसका चिह्न है कि वह ब्रह्म की स्तुति करता रहता है , जो कुछ कहता है वह परमात्मा की प्रशंसा ही है । तैत्तिरीय उपनिषद् में भी तत्त्वज्ञान के बाद अपनी सर्वरूपता का गान करते हुए विद्वान् रहता है यह बताया । गान या स्तवन यह द्योतित करता है कि उसे सर्वात्मा का स्मरण बना हुआ है , भेदानुभव ने अभेदानुभूव को अभिभूत नहीं कर लिया । परमात्मा को सर्वरूप कहना स्तुति है , यथावत् स्थिति नहीं क्योंकि सर्व कुछ है यह मानकर परमात्मा को तद्रूप कहा जा रहा है । वास्तव में तो सर्व अर्थात् विभिन्न व्यक्तियों व वस्तुओं का समुदाय है   ही नहीं कि परमात्मा को सर्वरूप कहा जाये । व्युत्थान दशा में सर्व प्रतीत होता है तो उसे परमात्मा पर ही आरोपित जानते हुए विद्वान् कहता है कि वही इन सब रूपों में है अतः यह स्तुति है । हर चीज को परमात्म दृष्टि से देखें तो परमात्मा को कभी भूल नहीं पायेंगे । गाली को भी दुर्वचन के रूप में न ग्रहण कर उसके प्रत्येक अक्षर की परमात्मबोधकता के आधार पर परमात्मा के ज्ञापक के रूप में ग्रहण करने की आदत पड़ जाये तब सदा शिवदृष्टि कायम रहेगी । गाली को दुर्वचन मानने से बहिर्मुखी विचार - प्रवाह प्रारम्भ होकर दुःख , द्वेष आदि बढ़ेगा । पुराणों में यही स्पष्ट करने के लिये ऋषियों के वर्णन आये हैं कि दीर्घ समाधि के बाद भी यदि क्षणभर को भी ब्रह्म को भूले तो शाप - कोप आदि से अपना तप क्षीण कर गये । संसार को सत्य समझने वाला संसार में ही फायदा - नुकसान देखता है जबकि उसे मिथ्या जानने वाला आत्मस्थिति को ही फायदा और उसके विचलन को ही नुकसान देखता है । इसीलिये अध्यात्म साधक में वैराग्य की अत्यधिक आवश्यकता है । विद्वान् स्वभावतः स्तुति करता है , मुमुक्षु यत्नतः ऐसा करे । सर्वरूप परमात्मा है इसे द्योतित करने वाले अनेक  स्तोत्रादि वेद , पुराण आदि उपलब्ध हैं , उनका सतत अर्थ - चिन्तन सहित आवर्तन भी अत्यन्त सहायक हो जाता है क्योंकि विचार को दिशा - निर्देश देता है । प्रकृत उपनिषत् में " कुत्स मुनि कृत स्तुति " आयी है जिसमें ब्रह्मा , विष्णु आदि सब रूपों वाला परमेश्वर को कहा है । स्वयं में जब रचयितृत्व , पालकत्व , नाशकत्व प्रतीत हो तब विचार करना चाहिये कि ये ब्रह्मा , विष्णु , रुद्र के ही कार्य हैं , परमेश्वर ही उन रूपों से ये कार्य सम्पन्न कर रहा है , मैं इसमें उपकरण - मात्र हूँ । इस तरह दृश्य और द्रष्टा दोनों परमात्मरूप हैं यह अनुसन्धान बनाये रखना साधक के लिये उपयोगी है । इससे कर्तृत्व भोक्तृत्व शिथिल पड़ता जाता है । द्वैत के संस्कार अनादि काल से पड़े हैं , अतिगहन हैं , अतः उन्हें दूर करने के लिये प्रयत्न अत्यधिक चाहिये । कपड़ा जितना ज्यादा गंदा हो उसे साफ करने के लिये उतनी ही ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है । अभ्यास की अत एव आश्यकता है , केवल समझ लेना पर्याप्त नहीं , उसे प्रतिक्षण दोहराते रहना , समाधि में वही बोध रखना, व्युत्थान में वैसी ही दृष्टि बनाते रहना पड़ता है तभी धीरे - धीरे द्वैतवासना दूर होकर ज्ञान  दूढ हो सकता है । भगवान् शङ्करचार्य जी कृत " उपदेशसाहस्री " के परिसंख्यान प्रकरण आदि में इसके लिये स्पष्ट निर्देश उपलब्ध है । योग अर्थात् निर्विकल्प समाधि में अद्वैत का सुस्पष्ट अनुभव हो जाये , व्युत्थान काल में दीर्घ अभ्यास से द्वैत - वासनाओं का क्षय हो जाये तो " मैं जीव हूँ " यह भ्रम सदा के लिये समाप्त हो जाता है । भूतकार्य शरीरों में मैं - बुद्धि ही जीवभाव है , अपनी पूर्ण व्यापकता के अनुभव से वह परिच्छिन्न अभिमान निवृत्त हो जाता है । स्वयं परमेश्वर ही जब भूत - भौतिक आकारों में प्रतीयमान तथा वही देहों में प्रविष्टरूप से प्रतीयमान है तब भेद की कोई सम्भावना रह नहीं जाती । दृश्य - द्रष्टा दोनों मिथ्या हैं , दोनों का अधिष्ठान चिन्मात्र ही सत्य है , वही प्रत्यक्तम वस्तु है । सत्य के साक्षात्कार से जब जीवभाव मिट जाता है तब वास्तविक सत्य ही बचेगा इसमें क्या संदेह ! बोद्धों के विज्ञानवाद का इतना ही संदेश हो कि प्रमाता मिथ्या है तो बात गलत नहीं है किन्तु वे सत्य चिद्रूप अधिष्ठान को नकारते हैं इसलिये उनका मत गलत हो जाता है । किसी सत्य के सहारे ही दूसरे को असत्य समझ सकते हैं , यदि कुछ सत्य है  ही नहीं तो " सब सत्य है " व " सब असत्य है " का कोई अन्तर ही नहीं रह जाता । निरधिष्ठान भ्रम मानने के अंधविश्वास से ही बोद्धों का मत खोखला बन पड़ा है । सांख्यवाद यद्यपि आत्मा को अनात्मा से पृथक कर दिखा देता है तथापि प्रकृति को , जड प्रपञ्च को सत्य मानकर द्वैतरूप भयहेतु को कायम रखकर मोक्ष को असम्भव कर देता है । अतः वेदान्त स्पष्ट करता है कि द्वैतबुद्धि का उपमर्दन कर , जीवताभ्रम छोड़कर , परमात्मभाव में स्थित रहना ही परम पुरुषार्थ है ।

नारायण ! स्तुति के बाद उपनिषत् में समझाया है कि एक ही चिदात्मा सर्वाकारों में है , तत्त्व का कोई भेद नहीं है " तमो वा इदमग्र आसीद् एकम्। तत् परे स्यात् । तत् परेणेरितं विषमत्वं प्रयाति । एतद्रूपं वै रजः । तद् रजः खल्वीरितं विषमत्वं प्रयाति । एतद्वै सत्त्वस्य रूपम् । तत् सत्त्वमेवेरितं रसः सम्प्रास्रवत् । सोंऽशोऽयं यश्चेतामात्रः प्रतिपुरुषः क्षेत्रज्ञः सङ्कल्पाऽध्यवसायाभिमानलिङ्गः प्रजापतिर्विश्वेत्यस्य प्रामुक्ता एतास्तनवः। " अर्थात् जो कुछ भी इदं - बुद्धिगम्य है वह उत्पत्ति से पूर्व तम अर्थात् मायारूप कारणात्मा ही था , उस स्थिति में अकेला तम था ,  अभिव्यक्त हुए नाम - रूप नहीं थे । वह तम पर अर्थात् परब्रह्म पर अध्यस्त था , अचेतन सदा चित्पराधीन ही होता है । वह परमात्मा ही तम , माया को प्रेरित करता है । जैसे जल बीज में प्रवेश कर बीज को अंकुरित करता है ऐसे चैतन्य आभासरूप से माया में प्रवेश कर उसे जगदाकार में अंकुरित करता है । परमात्मा से प्रेरित हुआ तम साम्यावस्था छोड़कर कार्योन्मुख हो जाता है , यही रज आधिक्य की अवस्था है । पुनः परमात्मप्रेरणा से जब उस दशा में भी विषमता आती है तब सत्त्वाधिक्य की अवस्था होती है। परमेश्वर प्रेरित सत्त्व के आधिक्य में रस अर्थात् चिदानन्दरूप प्रकाश प्रकट होता है । सत्त्व में प्रकट हुआ चेतन ही पुरुष की प्रतिकृति है , उसे ही क्षेत्रज्ञ कहते हैं । संकल्प , निश्चय , अभिमान आदि उस क्षेत्रज्ञ के चिह्न हैं । संकल्पादि ही व्यावहारिक चेतन का अनुमान कराते हैं , जड शरीर से अन्य चेतन को युक्तियुक्त सिद्ध करते हैं । सत्त्व में पड़ा चित्प्रतिबिम्ब ही विश्व - विराट् आदि व्यष्टि - समष्टि शरीर ग्रहण करता है । प्रतिबिम्ब सत्त्व के कारण ही ग्रहण होने पर भी रजस् - तमस् के साहचर्यवश उपाधि में विशेषताएँ आ जाती हैं जैसे तम  आधिक्य से रुद्र - उपाधि , रज आधिक्य से ब्रह्मा - उपाधि , एवं सत्त्वाधिक्य से विष्णु - उपाधि बन जाने से इनमें प्रतिबिम्बित रुद्रादि देव हो जाते है । जितने भी विविध चेतन प्रतीयमान हैं सब इसी तरह विभिन्न हुए हैं , बिम्ब चेतन अखण्ड ही है ।