Tuesday 25 July 2017

Om-

Swamishishuvidehanand Tiw: Swamishishuvidehanand Tiw: ता २५/७/२०१७-दोपहर
२"१८-( १४"१८)
श्रिदुर्गारक्ताम्बरा शक्तिपीठ ,संस्थापक अध्यक्ष
हम स्वामि शिशुविदेहानंद सरस्वती तिवारी महाराज ' अग्निहोत्रितिवारी'
तिवारी का बाडा
कारंजालाड (दत्त) 444105 जिला वाशिम महाराष्ट्र

 माॅ  मीराबाई ह तिवारी द्वारा आयोजित कार्यक्रम सव्वाकरोड मिट्टी के शिवलिंग निर्माण में विश्व के  अनेकानेक व्यक्ति

ग्लोबल वार्मिंग एवं भूमंडलीय औष्णिकरण पर सन 1994/2005/ से कार्य  अध्यात्मिक पद्धति  से शुरू है
पहलाचरण एकतालिसलाख ग्यारह हजार पाचसौ का पुर्ण हो चूका,
अब
दुसराचरण एकसष्टलाख ग्यारहहजार मिट्टि के शिवलिंग निर्माण का शुरू है ,
।। अथातों   वृक्षसंवर्धन  जिद्न्यासा।।

एकसठलाख ग्यारहहजार शिवलिंगम् का अभिषेकम् पुजनम्
दुसराचरण पूर्ण हो गया है।
माँ
मीराबाई ह तिवारि द्वारा
आयोजित कार्यक्रम सव्वासौकरोड मिट्टी के शिवलिंगम् निर्माण

एकसष्ठ लाख ग्यारहहजार नौ सौ (६१०००००"११हजार नौ सौ )

।। अथातों  वैदिक वृक्ष जिद्न्यासा ।।

श्रिदुर्गारक्ताम्बरा शक्तिपिठ, संस्थापक अध्यक्ष स्वामिशिशुविदेहानन्द'स्वामिशिशुसत्यविदेहानन्द सरस्वति तिवारीमहाराज कारंजालाड(दत्त)४४४१०५ जिला वाशिम के
माँ मिराबाई हरीकिसन तिवारि के मार्गदर्शन में ,
     शक्तीपिठ में सब वृक्षसंवर्धन के कार्य होते है।

।। अथातों वृक्षसंवर्धन  जिद्न्यासा ।।

 ,माँ मिराबाई ह तिवारि, उन पौधो का अनावरण् करती हुई ,इस अवसर

।।  अथातों  भक्त  जिद्न्यासा  ।।

श्रिदुर्गारक्ताम्बरा शक्तिपिठ ,संस्थापक अध्यक्ष स्वामिशिशुविदेहानन्दस्वामिशिशुसत्यविदेहानन्द सरस्वति तिवारीमहाराज , के तत्वावधान में
विशाल
 पौधरोपण एवं
षोषखड्डा = रेनवाटर हार्वेस्टिंग , ,ओर प्रीय मित्रों, अनुयायियों ,और सदस्यों को हम
स्वामिशिशुविदेहानन्दस्वामिशिशुसत्यविदेहानन्द सरस्वति तिवारीमहाराज
आवाहन करते है ..

शिवलिंगम् निर्माण में शामिल हुए।

Swamishishuvidehanand TiwariMaharaJ
SwamishishuvidehanandSwamishishusatyaVidehanand Sarswati
09921700260/09503857973---

।। अथातों  भक्त जिद्न्यासा

*इस संसार में प्रायः लोग कहते है सदाचरण और जीवन मूल्य श्रेयस्कर है किंतु इस मार्ग पर चलना बड़ा कठिन है। नैतिकता धारण करना दुष्कर कार्य है जबकि सच्चाई यह है कि सदाचरण जीवात्मा का मूलभूत स्वभाव है। बस, सुविधा और स्वार्थ पूर्ति के मानस के कारण ही विकार अपनी जगह बना लेते है।*
*यदि उदाहरण के लिए देखें तो सत्यनिष्ठा एक जीवन मूल्य है। हमें सच बोलकर सदा अच्छा अनुभव होता है, आत्मिक शान्ति और संतुष्टि का अनुभव होता है, पवित्रता का एहसास होता है और सच बोलना सहज भी लगता है।*
*वहीं जब झूठ का आश्रय लेना पड़े तो मन कचोटता है, गला सूखता है, दिल बैठ सा जाता है। वह इसलिए कि झूठ हमारी सहज स्वभाविक प्रतिक्रिया नहीं होती।*
*सच कठिन हो सकता है, पर प्रकट करते हुए बड़ा सहज महसुस होता है,*
*और परिणाम संतोष प्रदान करता है।*
 *लेकिन सवाल उठता है कि इन पर चलना जब हमारे जीवन का स्वभाव है तो हम इन पर चल क्यों नहीं पाते?*
*विषम परिस्थितियां आते ही डगमगा क्यों जाते हैं?*
*क्यों आसान लगता है अनैतिक हो जाना,*
*क्यों निष्ठावान रहना दुष्कर लगता है?*
 *कारण साफ है,*
*क्षणिक सुख और सुविधा की तरफ ढल पडना बहुत ही आसान होता है,*
*जबकि दृढ मनोबल बनाए रखना*
*कठिन पुरूषार्थ की मांग करता है।*
*जिस तरह हीरे में चमकने का प्राकृतिक स्वभाव होने के उपरांत भी वह हमें प्राकृतिक चमकदार प्राप्त नहीं होता।*
*हीरा स्वयं बहुत ही कठोर पदार्थ होता है। उसे चमकाने के लिए, उससे भी कठोर व तीक्ष्ण औजारों से प्रसंस्करण की आवश्यकता होती है।*
*उसकी आभा उभारने के लिए कटाई-घिसाई का कठिन श्रम करना पडता है। दाग वाला हिस्सा काट कर दूर करना पडता है। उस पर  सुनियोजित और सप्रमाण पहलू बनाने होते है।*
 *सभी पहलुओं घिस कर चिकना करने पर ही हीरा अपनी उत्कृष्ट चमक देता है। अगर हीरे में चमक अभिप्रेत है तो उसे कठिन श्रम से गुजरना ही पडेगा।*
*ठीक उसी प्रकार सद्गुण हमारी अंतरात्मा का स्वभाव है, अपनाने कठिन होते ही है। सदाचार हमारे जीवन के लिए हितकर है,*
 *श्रेयस्कर है।*
*यदि जीवन को दैदिप्यमान करना है तो कठिन परिश्रम और पुरूषार्थ से गुजरना ही होगा है। यदि सुंदर चरित्र का निर्माण हमारी ज्वलंत इच्छा है तो कटाव धिसाव के कठिन दौर से गुजरना ही होगा। सुहाते तुच्छ स्वार्थ के दाग हटाने होंगे।*
*आचार विचार के प्रत्येक पहलू को नियमबद्ध चिकना बनाना ही होगा।*
*यदि लक्ष्य उत्कृष्ट जीवन है तो स्वभाविक है,*
*उन मूल्यों को प्राप्त करने लिए पुरूषार्थ भी अतिशय कठिन ही होगा।*
*बाह्य पदार्थों को बाहर ही छोड़कर और नेत्रों की दृष्टि को भौंहों के बीच में स्थित करके तथा नासिका में विचरने वाले प्राण और अपान वायु को सम करके जिसकी इन्द्रियाँ मन और बुद्धि अपने वश में हैं जो मोक्ष परायण है*
*तथा जो इच्छा भय और क्रोध से सर्वथा रहित है वह मुनि सदा मुक्त ही है।*
*स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यान्*
 *परमात्मा के सिवाय सब पदार्थ बाह्य हैं।*
*बाह्य पदार्थों को बाहर ही छोड़ देने का तात्पर्य है कि मन से बाह्य विषयों का चिन्तन न करे।*
*बाह्य पदार्थों के सम्बन्ध का त्याग कर्मयोग में सेवा के द्वारा और ज्ञानयोग में विवेक के द्वारा किया जाता है।*
*यहाँ भगवति  ध्यानयोग के द्वारा बाह्य पदार्थों से सम्बन्ध विच्छेद की बात कह रही हैं। ध्यानयोग में एकमात्र परमात्मा का ही चिन्तन होने से बाह्य पदार्थों से विमुखता हो जाती है।*
*वास्तव में बाह्य पदार्थ बाधक नहीं हैं।*

 *बाधक है इनसे रागपूर्वक माना हुआ अपना सम्बन्ध।*

 *इस माने हुए सम्बन्ध का त्याग करने में ही (उपर्युक्त )पदों का तात्पर्य है।*

*(चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः) यहाँ (भ्रुवोः अन्तरे)*

*पदों से*
*दृष्टिको दोनों भौंहों के बीच में रखना अथवा दृष्टि को नासिका के अग्र भाग पर रखना (गीता 6/13) ये दोनों ही अर्थ लिये जा सकते हैं।*
*ध्यानकाल में नेत्रों को सर्वथा बंद रखने से लयदोष अर्थात् निद्रा आने की सम्भावना रहती है और नेत्रों को सर्वथा खुला रखने से (सामने दृश्य रहनेसे) विक्षेपदोष आने की सम्भावना रहती है।*
*इन दोनों प्रकार के दोषों को दूर करने के लिये*

*आधे मुँदे हुए*

*नेत्रोंकी दृष्टिको दोनों भौंहों के बीच स्थापित करने के लिये कहा गया है।*

*प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ*

*नासिका से बाहर निकलने वाली वायु को प्राण और नासिका के भीतर जाने वाली वायु को अपान कहते हैं।प्राणवायु की गति दीर्घ और अपानवायु की गति लघु होती है। इन दोनों को सम करने के लिये पहले बायीं नासिका से अपानवायु को भीतर ले जाकर दायीं नासिका से प्राणवायु को बाहर निकाले। फिर दायीं नासिका से अपानवायु को भीतर ले जाकर बायीं नासिका से प्राणवायु को बाहर निकाले। ,*
*इन सब क्रियाओं में बराबर समय लगना चाहिये।*
 *इस प्रकार लगातार अभ्यास करते रहने से प्राण और अपान वायु की गति सम शान्त और सूक्ष्म हो जाती है। जब नासिका के बाहर और भीतर तथा कण्ठादि देशमें वायुके स्पर्श का ज्ञान न हो तब समझना चाहिये कि प्राणअपान की गति सम हो गयी है।*
*इन दोनोंकी गति सम होने पर (लक्ष्य परमात्मा रहनेसे) मन से स्वाभाविक ही परमात्मा का चिन्तन होने लगता है।*
*ध्यानयोग में इस प्राणायाम की आवश्यकता होने से ही इसका उपर्युक्त पदों में उल्लेख किया गया है।*
*यतेन्द्रियमनोबुद्धिः*
*प्रत्येक मनुष्य में एक तो इन्द्रियों का ज्ञान रहता है और एक बुद्धि का ज्ञान। इन्द्रियाँ और बुद्धि दोनों के बीच में मन का निवास है।*
*मनुष्य को देखना यह है कि उसके मन पर इन्द्रियों के ज्ञान का प्रभाव है या बुद्धि के ज्ञान का प्रभाव है अथवा आंशिक रूप से दोनों के ज्ञान का प्रभाव है।*
*इन्द्रियों के ज्ञान में संयोग का प्रभाव पड़ता है और बुद्धि के ज्ञान में परिणाम का। जिन मनुष्यों के मन पर केवल इन्द्रियों के ज्ञान का प्रभाव है वे संयोगजन्य सुख भोग में ही लगे रहते हैं*
*और जिनके मन पर बुद्धिके ज्ञान का प्रभाव है वे (परिणामकी ओर दृष्टि रहनेसे) सुखभोग का त्याग करने में समर्थ हो जाते हैं*
  *न तेषु रमते बुधः (गीता 5/ 22)*
*प्रायः साधकों के मन पर आंशिक रूप से इन्द्रियों और बुद्धि दोनों के ज्ञान का प्रभाव रहता है। उनके मन में इन्द्रियों तथा बुद्धि के ज्ञान का द्वन्द्व चलता रहता है। इसलिये वे अपने विवेक को महत्त्व नहीं दे पाते और जो करना चाहते हैं उसे कर भी नहीं पाते।*
*यह द्वन्द्व ही ध्यान में बाधक है।*
*अतः यहाँ मन बुद्धि तथा इन्द्रियों को वश में करने का तात्पर्य है कि मन पर केवल बुद्धिके ज्ञान का प्रभाव रह जाय इन्द्रियों के ज्ञान का प्रभाव सर्वथा मिट जाय।*
*मुनिर्मोक्षपरायणः*
 परमात्मप्राप्ति करना ही जिनका लक्ष्य है ऐसे परमात्म स्वरूप का मनन करने वाले साधक को यहाँ,
 *मोक्षपरायणः*
कहा गया है।
*परमात्मतत्त्व सब देश काल आदि में परिपूर्ण होने के कारण सदा सर्वदा सबको प्राप्त ही है। परन्तु दृढ़ उद्देश्य न होने के कारण ऐसे नित्यप्राप्त तत्त्व की अनुभूति में देरी हो रही है।*
*यदि एक दृढ़ उद्देश्य बन जाय तो तत्त्व की अनुभूति में देरी का काम नहीं है। वास्तव में उद्देश्य पहले से ही बना बनाया है क्योंकि परमात्म प्राप्ति के लिये ही यह मनुष्य शरीर मिला है।*
*केवल इस उद्देश्य को पहचानना है।*
*जब साधक इस उद्देश्य को पहचान लेता है तब उसमें परमात्म प्राप्ति की लालसा उत्पन्न हो जाती है।*
 *यह लालसा संसार की सब कामनाओं को मिटाकर साधक को परमात्मतत्त्व का अनुभव करा देती है।*
*अतः परमात्मप्राप्ति के उद्देश्य को पहचानने के लिये ही यहाँ*
*मोक्षपरायणः*
पद का प्रयोग हुआ है।

*कर्मयोग सांख्ययोग ध्यानयोग भक्तियोग आदि सभी साधनों में एक दृढ़ निश्चय या उद्देश्य की बड़ी आवश्यकता है।*
*अगर अपने कल्याण का उद्देश्य ही दृढ़ नहीं होगा तो साधन से सिद्धि कैसे मिलेगी इसलिये यहाँ*
  *मोक्षपरायणः*
पद से ध्यानयोग में दृढ़ निश्चय की आवश्यकता बतायी गयी है।
*विगतेच्छाभयक्रोधो यः*
अपनी इच्छाकी पूर्तिमें बाधा देनेवाले प्राणीको अपने से सबल माननेपर उससे भय होता है कि निर्बल मानने से उस पर क्रोध आता है।
  *ऐसे ही जीने की इच्छा रहने पर मृत्यु से भय होता है और दूसरों से अपनी इच्छापूर्ति करवाने तथा दूसरों पर अपना अधिकार जमाने की इच्छा से क्रोध होता है। अतः भय और क्रोध होने में इच्छा ही मुख्य है। यदि मनुष्य में इच्छा पूर्ति का उद्देश्य न रहे प्रत्युत एकमात्र परमात्मप्राप्ति का उद्देश्य रह जाय तो भयक्रोध सहित इच्छा का सर्वथा अभाव हो जाता है। इच्छा का सर्वथा अभाव होने पर मनुष्य मुक्त हो जाता है। कारण कि वस्तुओं की और जीने की इच्छा से ही मनुष्य जन्ममरण रूप बन्धन में पड़ताहै। साधक को गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिये कि क्या वस्तुओं की इच्छा से वस्तुएँ मिल जाती हैं और क्या जीने की इच्छा से मृत्यु से बच जाते हैं वास्तविकता तो यह है कि न तो वस्तुओं की इच्छा पूरी कर सकते हैं और न मृत्यु से बच सकते हैं। इसलिये यदि साधक का यह दृढ़ निश्चय हो जाय कि मुझे एक परमात्मप्राप्ति के सिवाय कुछ नहीं चाहिये तो वह वर्तमान में ही मुक्त हो सकता है। परन्तु यदि वस्तुओं की और जीने की इच्छा रहेगी तो इच्छा कभी पूरी नहीं होगी और मृत्यु के भय से भी बचाव नहीं होगा तथा क्रोध से भी छुटकारा नहीं होगा।*
*इसलिये मुक्त होने के लिये इच्छारहित होना आवश्यक है।यदि वस्तु मिलने वाली है तो इच्छा किये बिना भी मिलेगी और यदि वस्तु नहीं मिलने वाली है तो इच्छा करने पर भी नहीं मिलेगी।*
*अतः वस्तु का मिलना या न मिलना इच्छा के अधीन नहीं है प्रत्युत किसी विधान के अधीन है। जो वस्तु इच्छा के अधीन नहीं है उसकी इच्छा को छोड़ने में क्या कठिनाई है यदि वस्तु की इच्छा पूरी होती हो तो उसे पूरी करने का प्रयत्न करते और यदि जीने की इच्छा पूरी होती हो तो मृत्यु से बचने का प्रयत्न करते।*
*परन्तु इच्छा के अनुसार न तो सब वस्तुएँ मिलती हैं और न मृत्यु से बचाव ही होता है। यदि वस्तुओं की इच्छा न रहे तो जीवन आनन्दमय हो जाता है और यदि जीने की इच्छा न रहे तो मृत्यु भी आनन्दमयी हो जाती है।*
*जीवन तभी कष्टमय होता है जब वस्तुओं की इच्छा करते हैं और मृत्यु तभी कष्टमयी होती है जब जीने की इच्छा करते हैं। इसलिये जिसने वस्तुओं की और जीने की इच्छा का सर्वथा त्याग कर दिया है वह जीते जी मुक्त हो जाता है अमर हो जाता है।*
*सदा मुक्त एव सः*
*उत्पत्ति विनाश शील पदार्थों के साथ अपना सम्बन्ध मानना ही बन्धन है।*
 *इस माने हुए सम्बन्ध का सर्वथा त्याग करना ही मुक्ति है।*
 *जो मुक्त हो गया है उस  पर किसी भी घटना परिस्थिति निन्दास्तुति अनुकूलता प्रतिकूलता जीवनमरण आदि का किञ्चिन्मात्र भी असर नहीं पड़ता।*
 *सदा मुक्त एव*
*पदों का तात्पर्य है कि वास्तव में साधक स्वरूप से सदा मुक्त ही है। केवल उत्पन्न और नष्ट होने वाली वस्तुओं से अपना सम्बन्ध माननेके कारण उसे अपने मुक्त स्वरूप का अनुभव नहीं हो रहा है। संसारसे माना हुआ सम्बन्ध मिटते ही स्वतःसिद्ध मुक्ति का अनुभव हो जाता है।*
*सम्बन्ध भगवान्ने योगनिष्ठा और सांख्यनिष्ठा का वर्णन करके दोनों के लिये उपयोगी ध्यानयोग का वर्णन किया। अब सुगमता पूर्वक कल्याण करने वाली भगवन्निष्ठा का वर्णन करते हैं।*
*इस संसार में निर्जीव व सजीव, चाहे वह चर हो अथवा अचर तथा केवल सजीव अथवा निर्जीव ही नहीं, सभी पञ्च भौतिक तत्व तक प्रत्येक किसी न किसी प्रकार से गतिमान बना  हुआ है |*
*इस प्रकार गतिमान बने रहने को हम एक प्रकार की “यात्रा” करना कह सकते हैं |*
*यात्रा उसे कहते हैं, जहाँ सामने किसी न किसी प्रकार का एक लक्ष्य हो और उस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए गतिमान होना आवश्यक है | बिना किसी लक्ष्य के यात्रा हो ही नहीं सकती |*
*मनुष्य के बारे में तो कहा जा सकता है कि वह कोई न कोई एक लक्ष्य स्वयं निर्धारित करता है और फिर उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए यात्रा प्रारम्भ करता है परन्तु शेष चर-अचर जीवों तथा निर्जीव वस्तुओं का भला क्या लक्ष्य हो सकता है ?*
*इस प्रकार सोचना सही है | यह लक्ष्य किसी न किसी का तो निर्धारित किया हुआ है, जिस कारण से इस संसार में सभी सजीव, निर्जीव तथा पांच भौतिक तत्वों की यह यात्रा अनवरत चल रही है |*
*परमात्मा ने ब्रह्माण्ड को बनाया, चेतन-अचेतन को बनाया और अंततः उसने मनुष्य को बनाया |*
*परमात्मा को मानव बनाने की आवश्यकता क्यों हुई ?*
*केवल मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो सोच-समझ सकता है और अपना लक्ष्य निर्धारित कर सकता है | अतः कहा जा सकता है कि मनुष्य के द्वारा ही इस यात्रा का प्रारम्भ होता है और मनुष्य के द्वारा ही इस यात्रा का अंत हो सकता है |*                
*मनुष्य की सबसे बड़ी विडंबना ही यही है कि वह अपने जीवन का लक्ष्य अभी तक सही प्रकार से निर्धारित नहीं कर सका है, तभी तो उसकी यात्रा कभी समाप्त नहीं हो पा रही है |*
*लक्ष्य एक ही हो सकता है, अनेक नहीं | अनेक तो कामनाएं हो सकती है |*
*हमें समझना होगा कि हमारे लिए यहाँ दो ही अनंत हैं, एक तो हमारी कामनाएं और दूसरा परमात्मा |*
*हम अनंत को तो पाना चाहते हैं परन्तु हमारा यह अनंत परमात्मा न होकर हमारी कामनाएं होती है | कामनाएं अनंत होती हैं और इस कारण से उनको कभी भी प्राप्त नहीं किया जा सकता |*

*परमात्मा भी अनन्त है परन्तु उसे प्राप्त किया जा सकता है |*

*मानव जन्म पाकर हमारा लक्ष्य केवल कामनाओं को पूरा करना ही रह गया है,*
*परमात्मा को पाना नहीं रहा*
 *यही हमारी जीवन यात्रा का पथ-विचलन है।*

*मनुष्य को यही सोचना और समझना होगा कि अनंत को पाने के लिए यात्रा को भी अनंत किया जाये अथवा अनंत को पाकर यात्रा का अंत कर दिया जाये |*
*अगर अनंत को पाने के लिए अनंत काल तक यात्रा करनी है तो संसार के भोग विलास की कामनाएं मन में उत्पन्न करते रहें और अगर अनंत को पाकर यात्रा समाप्त करनी है, तो परमात्मा को पाने की ही एक मात्र कामना करनी पडती है।*

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