Wednesday, 25 July 2018

अथातों पर्यावरण जिद्न्यासा

*ता 25/7/2018 | दोपहर 12"16--12"16*

*श्रिदुर्गारक्ताम्बरा शक्तिपीठ ,संस्थापक अध्यक्ष*
*हम स्वामि शिशुविदेहानंद सरस्वती तिवारी महाराज ' अग्निहोत्रितिवारी'*
*तिवारी का बाडा*
*कारंजालाड (दत्त) 444105 जिला वाशिम महाराष्ट्र*

*ग्लोबल वार्मिंग एवं भूमंडलीय औष्णिकरण पर सन 1994/2005/ से *कार्य  अध्यात्मिक पद्धति  से शुरू है*
*पहलाचरण एकतालिसलाख ग्यारह हजार पाचसौ का पुर्ण हो चूका,*
*अब*
*दुसराचरण एकसष्टलाख ग्यारहहजार मिट्टि के शिवलिंग निर्माण का शुरू है ,*
*॥। अथातों   वृक्षसंवर्धन  जिद्न्यासा।।*

*एकसठलाख ग्यारहहजार शिवलिंगम् का अभिषेकम् पुजनम्*
*दुसराचरण पूर्ण हो गया है॥*
*माँ*
*मीराबाई ह तिवारि द्वारा*
*आयोजित कार्यक्रम सव्वासौकरोड मिट्टी के शिवलिंगम् निर्माण*

*एकसष्ठ लाख ग्यारहहजार नौ सौ (६१०००००"११हजार नौ सौ )*

*।। अथातों  वैदिक वृक्ष जिद्न्यासा ।।*

*श्रिदुर्गारक्ताम्बरा शक्तिपिठ, संस्थापक अध्यक्ष *स्वामिशिशुविदेहानन्द'स्वामिशिशुसत्यविदेहानन्द सरस्वति तिवारीमहाराज *कारंजालाड(दत्त)४४४१०५ जिला वाशिम के*
*माँ मिराबाई हरीकिसन तिवारि के मार्गदर्शन में*
     *शक्तीपिठ में सब वृक्षसंवर्धन के कार्य होते है।*

*।। अथातों वृक्षसंवर्धन  जिद्न्यासा ।।*

 *माँ मिराबाई ह तिवारि ,उन पौधो का अनावरण् करती हुई*

*।।  अथातों  भक्त  जिद्न्यासा  ।।*

*श्रिदुर्गारक्ताम्बरा शक्तिपिठ ,संस्थापक अध्यक्ष *स्वामिशिशुविदेहानन्दस्वामिशिशुसत्यविदेहानन्द सरस्वति *तिवारीमहाराज , के तत्वावधान में*
*विशाल*
 *पौधरोपण एवं*
*षोषखड्डा = रेनवाटर हार्वेस्टिंग , ,ओर प्रीय मित्रों, अनुयायियों ,और सदस्यों *को हम*
*स्वामिशिशुविदेहानन्दस्वामिशिशुसत्यविदेहानन्द सरस्वति* *तिवारीमहाराज*
*आवाहन करते है*.. 

*शिवलिंगम् निर्माण में शामिल हुए।*

*।। अथातों  भक्त जिद्न्यासा।।*

*माँ मिराबाई हरीकिसन तिवारि* *द्वारा*
 सौ बजाज को *नंबर २ का बेलवृक्ष का* ( १९५६८०२) का पौधा प्रदान कीया ।
*शक्तिपिठ* मे और भी सकारात्मकता के साथ *वृक्ष प्रदानीय कार्य*
इस कार्य का क्रम है , *सम्ब्न्धीत व्यकति, समूह* , सन्गठन ,को वह
*पौधै*
*वितरित करना जो नंबर डाले* हुए हो ,और फिर *सम्ब्न्धीत व्यक्ति, समुह या* *सन्गठन के नामरूप की* *रजिस्टर में उल्लेखना् ,वृक्ष का नंबर*
उनकी रजीस्टर मे साइन , *उनका पूर्ण नामपता*,जिससे भविष्य में *अनुगमन् कर सकें* ,अवलोकन कर सकें ,और *जल* *सन्रक्षण भी सुनिश्चित करसके*।
*वह केवल् एक पौधा नहीं* *है*वहशक्तिपिठ मे *निर्माणित्*
*संवर्धित*
*एक*
*सदस्य*
*है*
*मित्रों*
*यहसब*
*आपके स'स्नेह और सहयोग के*
*कारण हो रहा है*

*संसार के विभीन्न विषयक् समस्या पर पन्चान्ग*
*देखने आते है।।*
और शिवलिंगम् निर्माण मे शामीलहुऐ

॥ अथातों   बरसात  जिदन्यासा ।।

यह कहना अतिशयोक्ति होगी की संस्कृत माह  फागुन का नाम बदलकर
आषाढ़
कर दिया जाऐ , लेकिन पिछले चार,पाँच वर्षो  से फागुन और चैत्र माह के मध्य
खुब झमाझम बारीष होती है और....आषाढ़ आतेआते    बादल    गांवों और खेतों का रास्ता ही भुल जाते है।
और भी जादा चिन्तीत् करनेवाला प्रश्न यह है की बारिश का तिव्र बन रहा
डकैत सा स्वभाव् है ,,यह लगातार पाँचवा ( चौदहवाँ ) वर्षे है की वह  अपराधी की तरह आती है और भगौड़े अपराधी कि तरह ,और आध पौने घन्टे मुसलाधार   बरस   करके निकल जाती है ।
गोवा , महाराष्ट्र , केरल , तामिलनाडु , कर्नाटक , उत्तर भारत में उत्तराखण्ड ,जम्मू कश्मीर , बिहार , बंगाल में वर्षा का अनिश्चित आक्रामक तेवर रहरह कर देखने को मिल रहा हैं ,हद तो यह है कि देश के कीसी प्रदेश के एक हिस्से में  अतिवृष्टि भयावह खतरा पैदा हो जाता है ,और उसी प्रदेश के दुसरे इलाके मे   भयावह सुखा  दिखाइ देता है
एक बात पिछले कई वर्षो से देखी जा रही हैं कि मानसुन के आते ही
मौसम विभाग सहीत देश कि तमाम एजन्सीयां ,जो मानसुन भविष्यवाणीयाँ करती हैं  मानसुन सामान्य रहने की बात कहने लगती है
लेकिन देखने वाली बात यह है कि मानसुन सामान्य रहने के बाद भी

देश के तमाम् हिस्से सुखे से जुझ़ रहे होते है ,मात्रा की हिसाब् से देखें तो बारिश कोई कम नही हो रही ,उलटे कुछ बढ़ी ही हैं ,

लेकिन प्रश्न यह है कि मानसुन मे ज्यादा बारिश होने के बाद भी
कई इलाकों और प्रदेशों को सुखे की मार    क्यों    झेलनी पड़ रही हैं।

पिछले कुछ साल से बारीश का  ट्रेन्ड़  बहुत तेजी से बढ़ रहा है ,यह सिर्फ हमारे यहाँ ही नही हो रहा हे , पाकिस्तान, बान्गलादेश , नेपाल् ,श्रीलन्का, चिन ,और पुरे युरोप तक मे ऐसा हो रहा है।बारीश के ईस बदलते पैटर्न से  साफसाफ बदलाव दिख रहा है, बारीश के ईस बदलतें पैटर्न से सिर्फ
लोगों को ही परेशानी नहीं हो रही है , ईससे  हमारी कृषी खासकर ईसखेती की   उत्पादकता  पर असर पड़ रहा है।

हम सब जानते है कि बारीश हमारी   अर्थव्यवस्था का अहम हिस्सा है ।

देश की   जीड़ीपी में कृषी  क्षेत्र की करीब 17 फीसदी  जबकि
ग्रामीण अर्थव्यवस्था में 35 से 40 फीसदी से ज्यादा हिस्सेदारी है ।

मौसमविभाग की माने तो पिछले 66 वर्षो मे देश मे  औसत या सामान्य बारिश 95 से 103 फीसदी के बीच रही है ।

देश मे जीतनी बारिश साल भर मे होती है उसमे से 70 से 79 प्रतिशत  मानसुन   मे होती है ।

मध्य और उत्तर पश्चिमी भारत मे तो  मानसुन  मे होनेवाली बारिश साल की कुल बारिश का 89 फीसदी तक होती है  लेकिन... पिछले 16--17--साल से  मानसुनी  बारिश  का यह  आँकडा़  गड़बड़ाने लगी है ।

पर्यावरणिय लिहाज से बहुत    संवेदनशील  हिमालयी क्षेत्र मे भी
बारिश का मिजाज बहुत तेजी से बदल रहा है , ऊत्तराखण्ड मे ईसे आम लोगों के स्तर तक  महसुस  किया जा रहा है।

तकनीकी रूप से देखा जाऐ तो  बारिश औसत के अनुरूप ही हो रही हैं ,
लेकिन ईसका अब पहले जैसा पँटर्न नही रहा है, एक जमाने में बारिश के दिनों में पहाड़ो मे लगनेवाला स्त्झ्ड़प्त्झ्ड़् अर्थात सात से दस दिनों तक लगातार रिमझिम होने वाली बारिश ,या युपीबिहार मे लगनेवाली झड़ी
किस्सेकहानियों की बात होकर रह गई है ।
इनकी जगह कम समय मे होनेवाली मुसलाधार बारिश ने ले ली है ।

बाढ़ की बढ़ती विभीषिका  ईसी का नतीजा है ।
हमारे गणित के हिसाब् से यह  " भुमण्डलीय औष्णिकरण " याने Global warming के चलते पैदा हुई है ।
ईस पँटर्न को रोकने का अगर  गम्भीर प्रयास् न किया गया तो यह पृथ्वी प्लँनेट समाप्त हो जाऐगा ।

और

हमारे ( हम Global warming पर  1988_1994___ से कार्य कर रहे हैं, हमारे सदसदगुरुदेव अखण्डानंदत्रिलोकचंदव्यास जी ने ही ईसलीए हमे ' सौरमण्डलेश्वर ' की उपाधि प्रदान की) हमारे मुताबिक अगर पुरे  मानसुन
के सीजन मे 130--160--- घन्टो तक धीमी  और  संयमीत  बारिश नहीं होती  तो  धरती  का  भू--जल  रिचार्ज नही होता ।
ईसीलीए धीमी बारिश का होना विश्व के अस्तित्व के लिए बहुत जरुरी है ।

दरअसल जो बारिश पीछले 15-16- वर्षो से उसकी तीव्रता मे 14--15-- फीसदी की बढो़त्तरी हुई है , इसको फिर से पुरानी गति पर लाने के लिए
वैश्विक औष्णिकरण और Climate change को बढावा देनेवाली
गतीविधियां ' खास तौर पर मानवजनित कारकों ' पर  अन्कुश लगाना
होगा , सबसे मुख्य बात है कि हमे प्रकृति के साथ  ' एडजेस्टमेन्ट् '
करना पड़ेगा ।। प्रकृति के अनुरूप आचरण करना पड़ेगा ,तभी वर्षा का बिगडता मिजाज सन्तुलित लद एवं समयबद्ध हो सकता है।

ईसके लिऐ हमने " Swamishishuvidehanand sarswati tiwari Maharaj karanJaLad Experiment " 99999 करोड़ ,हमारा बनाया हुआ श्रीदुर्गाकरुणास्तवस्तोत्रजगतगुरूस्रोत्र के 'निन्यान्नबे हजारृनौसौ निव्यान्नबे पाठ्  यह  कार्यक्रम बनाया है, इसके घरघर पाठ् एवं 
हमारी बनाई विधीद्वारा  हवन   करना चाहिए।।
 सभी लोग जुड़ जाऐ ।।
और
शिवलिंगम् निर्माण में शामील हुऐ ।।

Sunday, 22 July 2018

मरता हुआ देश हिन्दुस्तान...

आज हीन्दुस्थान एक मरता हुआ देश है

यहाँ की सरकार अन्धाधुन्ध वृक्षों को काटरही है रास्तें बड़े करने हेतू ,और दुसरीतरफ करोड़ों वृक्ष लगाने की योजनाओं पर अन्धाधुन्ध पैसा खर्च हो रहा है ,

यह भी नही मालुम ईन भोन्दु राजनितीज्ञों को कि

कौनसे वृक्ष लगाने चाहिए

और

पब्लिक

भी

बेवकुफों

की

तरह

कोई भी वृक्ष लगा रही है ,जो वृक्ष

लगाऐं जा
रहे
है
वें

Global   warming

को
और भी
जादा

बढा़ने

वालें
है ।
कुछेक वृक्ष है जो विव्व्द्मिज्ञ्ण्ड्द्भैषणात्मक रुप से ही लगाने होते है, तभी ग्लोबल वार्मिंग पर वह कार्य करेंगे , लेकिन ईन भोन्दुओं को यह कौन समझाऐ ,मनमाने ढंग से कियाहुआ वृक्षारोपण यह आगे की पिढियों के लिए घातक ही होगा । क्योंकि ईससे न केवल् Carbon Dioxide बल्कि मिथेन और Helium भी जादा प्रमाण् मे उत्सर्जिन होकर ईस Planet को पूरी तरह ' बियाबान' बना देंगे।

Monday, 16 July 2018

पराविज्ञान एव़ं....

युग चाहे कोई भी हो, सदैव जीवन-मूल्य ही इन्सान को सभ्य और सुसंस्कृत बनाते है।  जीवन मूल्य ही हमें प्राणी से इन्सान बनाते है। नैतिक जीवन मूल्य ही शान्त और संतुष्ट से जीवन जीने का मार्ग प्रशस्त करते है। किन्तु हमारे जीवन में बरसों के जमे जमाए उटपटांग आचार विचार के कारण, जीवन में सार्थक जीवन मूल्यो को स्थापित करना अत्यंत कष्टकर होता है।

हमारे आचार विचार इतने सुविधाभोगी हो चले है कि आचारों में विकार भी सहज सामान्य ग्राह्य हो गए है। सदाचार धारण करना कठिन ही नहीं, दुष्कर प्रतीत होता है। तब हम घोषणा ही कर देते है कि साधारण से जीवन में ऐसे सत्कर्मों को अपनाना असम्भव है। और फिर शुरू हो जाते है हमारे बहाने …
‘आज के कलयुग में भला यह सम्भव है?’ या ‘तब तो फिर जीना ही छोड दें?’। ‘आज कौन है जो यह सब निभा सकता है?’, ऐसे आदर्श सदाचारों को अंगीकार कर कोई जिन्दा ही नहीं रह सकता। वगैरह …

ऐसी दशा में कोई सदाचारी मिल भी जाय तो हमारे मन में संशय ही उत्पन्न होता है, आज के जमाने में ऐसा कोई हो ही नहीं सकता, शायद यह दिखावा मात्र है। यदि उस संशय का समाधान भी हो जाय, और किसी सदाचारी से मिलना भी हो जाय तब भी उसे संदिग्ध साबित करने का हमारा प्रयास और भी प्रबल हो जाता है। हम अपनी बुराईयों को सदैव ढककर ही रखना चाहते है। जो थोड़ी सी अच्छाईयां हो तो उसे तिल का ताड़ बनाकर प्रस्तुत करते है। किसी अन्य में हमें हमसे अधिक अच्छाईयां बर्दास्त नहीं होती और हम उसे झूठा करार दे देते है।

बुराईयां ढलान का मार्ग होती है जबकि अच्छाईयां चढाई का कठिन मार्ग। इसलिए बुराई की तरफ ढल जाना सहज, सरल और आसान होता है जबकि अच्छाई की तरफ बढना अति कठिन और श्रमयुक्त पुरूषार्थ।

मुश्किल यह है कि अच्छा कहलाने का यश सभी लेना चाहते है, पर जब कठिन श्रम और बलिदान की बात आती है तो हम मुफ्त श्रेय का शोर्ट-कट ढूँढते है। किन्तु सदाचार और गुणवर्धन के श्रम व त्याग का कोई शोर्ट-कट विकल्प नहीं होता। यही वह कारण हैं जब हमारे सम्मुख सद्विचार आते है तो अतिशय लुभावने प्रतीत होने के उपरान्त भी सहसा मुंह से निकल पडता है ‘इस पर चलना बड़ा कठिन है’।

यह हमारे सुविधाभोगी मानस की ही प्रतिक्रिया होती है। हम कठिन, कष्टकर, त्यागमय प्रक्रिया से गुजरना नहीं चाहते। भले मानव में आत्मविश्वास और मनोबल  की अनंत शक्तियां विद्यमान होती है। प्रमाद वश हम उसका उपयोग नहीं करते। जबकि जरूरत मात्र जीवन-मूल्यों को स्वीकार करने के लिए इस मन को सजग रखने भर की होती है। मनोबल यदि एकबार जग गया तो कैसे भी दुष्कर गुण हो अंगीकार करना सरल ही नहीं, मजेदार भी बनता चला जाता है।

यदि एक बार सदाचारों उपजे शान्त जीवन का चस्का लग जाय, सारी कठिनाईयां परिवर्तित होकर हमारे ज्वलंत मनोरथ में तब्दिल हो जाती है। फिर तो यह शान्ति और संतुष्टि, उत्तरोत्तर उत्कृष्ट उँचाई सर करने की मानसिक उर्ज़ा देती रहती है। जैसे एड्वेन्चर का रोमांच हमें दुर्गम रास्ते और शिखर तक सर करवा देता है, यह मनोवृति हमें प्रतिकूलता में भी अपार आनन्द प्रदान करती है। जब ऐसे मनोरथ इष्ट बन जाए तो सद्गुण अंगीकार कर जीवन को मूल्यवान बनाना कोई असम्भव कार्य नही। मनुष्य का जीवन एक पौधे के समान ही है । उसी तरह वह एक छोटे - से बीज से पैदा होकर फैलता और बढ़ता है । इस सम्बन्ध में कि कैसे , क्यों , कितना आदि प्रश्नों का ऴ स्वयं में एक रोचक परिक्षण है ।
! कैसी विचित्र माया है प्रकृति माता की ! एक सूक्ष्म - सी कोशिका से भारी - भरकम मानव का निर्माण हो जाता है । उस नन्हें - से निर्दोष - भोले - मुस्कुराते प्राणी को किसी बात की चिन्ता नहीं होती । भोजन और रक्षा की पूरी व्यवस्था स्वयं प्रकृति माता करती है । फिर अवस्था के साथ - साथ जिम्मेदारियाँ बढ़ने लगती हैं और वही माँ, जिसने उसे दूध पिलाकर बड़ा किया और सब प्रकार रक्षा कर उसे जीने का मार्ग दर्शाया है , धीरे - धीरे अपने कार्य में ढील देना आरम्भ कर देती है । अब उसे इस बात की शिक्षा दी जाती है , कि बच्चा अपने अंगों से स्वयं काम ले, और सोच - समझकर अपने पाँवों पर खड़ा होना सीखे ।

इस प्रकार हमारा तन अपने हिसाब से एक पूर्ण एकक के रूप में प्रकट होता है और मन अपने ढंग से उन्नति करता है , किन्तु मन के संसार में प्रकृति कुछ न कुछ कमी छोड़ देती है , जिसे मनुष्य जीवन पर्यन्त पूरी करने का यत्न करता  रहता है , और कदाचित् यही वह त्रुटि होती है , जो उसके जीवन को सोद्देश्य बना देती है । इसी से उसमें सोचने की शक्ति उत्पन्न होती है और इसी कारण वह अपने जीवन के रूप बनाता - बिगाड़ता रहता है ।
शारीरिक जीवन तो जन्म के साथ ही आरम्भ हो जाता है , किन्तु मन भी अपना काम शुरू करने में देर नहीं लगाता । माँ की गोद में ही मन की आधारशिलाएँ रखी जाने लगती है । भूख -प्यास , सोना - जागना , प्यार - रोष , दुःख - सुख आदि का व्यवहार समझ में आने लग जाता है , और जितना वह बाहर उन्नति करता है , उससे भी अधिक गति से भीतर बढ़ता है । तन की बढ़ोतरी तो दिखाई पड़ती है , परन्तु मन का परिवर्तनपरिवर्धन दृष्टिगोचर नहीं होता , जैसे सीर के अंग रंग - रूप लेते हैं, वैसे ही मन भी अपने व्यक्तित्व का निर्माण करता है । अनेक स्थितियाँ बनती हैं । कभी भीतरी शक्तियाँ जो मारती है , कभी बाहरी वातावरण भारी पड़ जाता है । यह कभी इन्द्रियों के बस में हो जाता है और कभी शरीर को उसकी अपनी इच्छानुसार चलने को विवश कर देता है ।

मन का सम्बन्ध संसार के साथ शरीर के माध्यम से ही बनता है । इन्द्रियों द्वारा ही इसे बाहर की दुनिया का ज्ञान  प्राप्त होता है । यह कभी - कभी अपने आस - पास सब चीजों पर शासन करने का प्रयास करता है , किन्तु भौतिक बाधाएँ मार्ग अवरुद्ध कर देती है । अन्त में तन और मन एक समझोता कर लेते हैं । पौधे की जड़े भले ही कितनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएँ , धरती के भीतर होने के कारण दृष्टिगोचर नहीं होतीं । इसी प्रकार मन की क्रिया और उसके फलित होने की प्रक्रिया आँखों से ओझल रहती है।
मन तो तन का एक प्रतिबिम्ब है । यह छाया भले ही छूईं न जा सके , किन्तु इसके अस्तित्व में कोई सन्देह नहीं । यह सत्य है कि परछाईं का स्वरूप शरीर के अंगों की तरह स्थूल नहीं होता , परनई इसके प्रभाव को अस्वीकार नहीं किया जा सकता ।

मन एक मन्दिर है , एक मूर्ति है । मन आस - पास के सब कामों को देखता है , परखता है और शरीर का हिसाब लेता है । उसकी आँखों से कुछ भी छूपता नहीं । मनुष्य का शरीर किसी बात को माने या न माने , मन उसे पहचान लेता है ।
 ! मन के भीतर उठी हर लहर शरीर के अंगों को प्रभावित करती है। वह उसे गति देती है और सच पूछो , तो शरीर के अनेक कार्यों का कारण बनती है । जब मन के अन्तर में बवण्डर उठता है तो शरीर में थिरकन  पैदा होती है , वह मौज में आ जाता है , चोटें लगाता है और खाता भी है । इनके वेग और मात्र का निर्णय प्रायः मन ही करता है ।

मन अपना काम तो किसी विचार के बल पर करता है , किन्तु उसका विस्तार बहुत होता है । फिर अन्तस् की शक्तियाँ उभरकर स्वभाव बनने लगती हैं और अनुभव का रूप लेती हैं । इनमें कुछ ऐसी भी होती हैं , जो बिना किसी विचार अथवा इच्छा के स्वतः आ जाती हैं और वैसे ही चली भी जाती हैं । शरीर को मन के विस्तार का बोध होता है । अतः वह इसे बाँध रखने का यत्न निरन्तर करता है । उसे आशंका रहती हैं कि मन स्वच्छन्द हो गया , तो उससे अधिक क्षति शरीर को सहनी होगी । कई बार शरीर बेचारा अपनी पीड़ा को प्रकट नहीं होने देता कि कहीं मन आवेश में आकर कुछ कर न बैठे ।

परन्तु मन भी शरीर का आदर करता है । वह जानता है कि उसे शरीर के साथ रहना है, तो उसका ध्यान रखना ही होगा ।  कारण खोजने का यत्न कर रहे हैं । यदि व्यक्तित्व में दृढ़ता और प्रौड़ता होती है , तो जीवन में कुछ अनुभवों की मिट्टी से भी एक सुन्दर मूरत बना ली जाती है , किन्तु व्यक्ति में अधूरापन है और तम - मन की आपस में नहीं बनती , तो अच्छी - भली सूरत भी भौंडी हो जाती है ।
प्रकृति भी कितनी विचित्र है कि प्रकट में तो हर इन्सान एक - सा है - एक ही सिर , एक ही नाक , दो पाँव , दो हाथ सबमें समान होते हैं , किन्तु अन्तर में एक - दूसरे से इतने भिन्न कि उनकी किसी बात में भी मेल नहीं होता । हाँ , तन और मन के मिलाप की समानता सबमें अवश्य होती है , और उसका रूप भी विचित्र होता है , जिसे न आज तक कोई सही माप पाया है और न भविष्य में इसकी आशा है ।
! भावुक और समझदार लोगों में तन और मन का ताल - मेल बड़ा रोचक होता है । एक ओर वह सोच - समझकर शान्तिपूर्णक लिखने - पढ़ने वाला इन्सान होता है , तो दूसरी ओर बेचैन और भावनाओं में उलझा हुआ , तीसरी ओर वही व्यक्ति जीवन के संघर्ष में ऐसा फँसा हुआ कि खाने के लाले { भूखमरी } पड़े हों । वह कभी एक को भूलता है तो कभी दूसरे को। कभी एक रंग उभरता है , कभी दूसरा । तीनों रूप एक - दूसरे को देखते हैं , जानते भी हैं , किन्तु एक - दूसरे से आँख मिलाने का साहस नहीं करते और समझौते करते रहते हैं । अपना कोई मत नहीं , केवल तन - मन के समझौते हैं । उनका हिसाब कोई नहीं लगा सकता । जीवन नैया जहाँ लगी , वहीं ठिकाना हो गया । जीवन में हर कार्य के लिए ऊर्जा की अपेक्षा होती है , और इसे पैदा करने के लिए मन एक अंगड़ाई लेता है । मानवी भावनाएँ गतिशील हो जाती हैं । उनकी यह क्रिया शरीर को प्रभावित करती है , जिससे वह कुछ करने को तैयार हो जाता है , परन्तु इस स्थिति में तन का बड़ा दायित्व होता है , उसे मन की इस गति को वश में रखना होता है । वह अपनी झोंक में आ जाये , तो न जाने क्या कर बैठे। सब लोग नित्य किसी पर बलिदान होते रहेंगे या किसी को कच्चा ही चबा जायेंगे ।
 मन की इस शक्ति को वश में रखने और उसका समुचित उपयोग करने के लिए ही शिक्षा , धर्म और विज्ञान की आवश्यकता होती है। यही वह शक्ति है , जिसका उचित उपयोग दुःख में भी मुँह पर लाली ले आता है और अनुचित व्यवहार इन्सान का लहू पी लेता है , परन्तु इसकी अभाव्यक्ति होना आवश्यक है , नहीं तो यह शक्ति व्यक्ति की भीतरी भावना को तोड़ना  आरम्भ कर देती है । अधिकांश मानसिक रोग इसीके कारण पैदा होते हैं , अन्तर का टूटना किसी को दिखाई तो देता नहीं , पर वह व्यक्ति स्वयं और उसके निकट के समझदार लोग इसे अवश्य अनुभव कर सकते हैं ।  उस समय प्रेतविद्या अथवा आत्म विद्या पर शोध करने की व्यवस्था विश्व विद्यालयों में नहीं थी। अतः मैंने व्यक्तिगत रूप से इस विषय पर खोज करने का निश्चय कर लिया। सबसे पहले मैंने इन दोनों विषयों से सम्बंधित तमाम पुस्तकों तथा हस्त लिखित ग्रन्थों का संग्रह किया। ऐसी पुस्तकों का जो संग्रह मेरे पास है, वैसा शायद ही किसीके पास हो। खोज के सिलसिले में मैंने यह जाना कि आत्माओं के कई भेद हैं, जिनमें जीवात्मा, मृतात्मा, प्रेतात्मा और सूक्ष्मात्मा--ये चार मुख्य हैं।
       मृत्यु के बाद मनुष्य कहाँ जाता है और उसकी आत्मा किस अवस्था में रहती है ?--इस विषय में मुझे बचपन से कौतूहल रहा है। सच तो यह है कि मृत्यु के विषय में  भय और शोक की भावना से कहीं अधिक जिज्ञासा का भाव मेरे मन में रहा है। शायद इसी कारण मैंने परामनोविज्ञान में एम्. ए. किया और शोध शुरू किया।
       वास्तव में मृत्यु जीवन का अन्त नहीं। मृत्यु के बाद भी जीवन है। जैसे दिनभर के श्रम के बाद नींद आवश्यक है, उसी प्रकार जीवनभर के परिश्रम और भाग-दौड़ के  बाद मृत्यु आवश्यक है। मृत्यु जीवनभर की थकान के बाद हमें विश्राम और शान्ति प्रदान करती है जिसके फल स्वरुप हम पुनः तरोताजा होकर नया जीवन शुरू करते हैं।
       मेरी दृष्टि में मृत्यु का अर्थ है--गहरी नींद जिससे जागने पर हम नया जीवन, नया वातावरण और नया परिवार पाते हैं, फिर हमारी नयी यात्रा शुरू होती है। स्वर्ग-
नर्क केवल कल्पना मात्र है। शास्त्रों में इनकी कल्पना इसलिए की गयी है कि लोग पाप से बचें और सत् कार्य की ओर प्रवृत्त हों। नर्क का भय उन्हें दुष्कार्य से बचाएगा और स्वर्ग सुख की लालसा उन्हें पुण्य कार्य या सत् कार्य की ओर प्रेरित करेगी। जो कुछ भी हैं--वे हमारे विचार हैं, हमारी भावनाएं हैं जिनके ही अनुसार मृत्यु उपरांत हमारे लिए वातावरण तैयार होता है।
      मृत्यु एक मंगलकारी क्षण है, एक सुखद और आनंदमय अनुभव है। मगर हम उसे अपने कुसंस्कार, वासना, लोभ-लालच आदि के कारण दारुण और कष्टमय बना लेते हैं। इन्ही सबका संस्कार हमारी आत्मा पर पड़ता रहता है जिससे हम मृत्यु के अज्ञात भय से त्रस्त रहते हैं।
       मृत्यु के समय एक नीरव विस्फोट के साथ स्थूल शरीर के परमाणुओं का विघटन शुरू हो जाता है और शरीर को जला देने या ज़मीन में गाड़ देने के बाद भी ये परमाणु वातावरण में बिखरे रहते हैं। लेकिन उनमें फिर से उसी आकृति में एकत्र होने की प्रवृत्ति तीव्र रहती है। साथ ही इनमें मनुष्य की अतृप्त भोग-वासनाओं की लालसा भी बनी रहती है। इसी स्थिति को 'प्रेतात्मा' कहते हैं। प्रेतात्मा का शरीर आकाशीय वासनामय होता है। मृत्यु के बाद और प्रेतात्मा के बनने की पूर्व की अल्प अवधि की अवस्था को 'मृतात्मा' कहते हैं। मृतात्मा और प्रेतात्मा में बस थोड़ा-सा ही अन्तर है। वासना और कामना अच्छी-बुरी दोनों प्रकार की होती हैं। स्थूल शरीर को छोड़कर जितने भी शरीर हैं, सब भोग शरीर हैं। मृत आत्माओं के भी शरीर भोग शरीर हैं। वे अपनी वासनाओं-कामनाओं की पूर्ति के लिए जीवित व्यक्ति का सहारा लेती हैं। मगर उन्हीं व्यक्तियों का जिनका हृदय दुर्बल और जिनके विचार, भाव, संस्कार आदि उनसे मिलते-जुलते हैं।
      मृतात्माओं का शरीर आकाशीय होने के कारण उनकी गति प्रकाश की गति के समान होती है। वे एक क्षण में हज़ारों मील  की दूरी तय कर लेती हैं।
      जीवित व्यक्तियों के शरीर में मृतात्माएँ या प्रेतात्माएँ कैसे प्रवेश करती हैं ?
     मृतात्माएँ अपने संस्कार और अपनी  वासनाओं को जिस व्यक्ति में पाती हैं, उसीके माध्यम से उसके शरीर में प्रवेश कर अपनी कामना पूर्ति कर लिया करती हैं। उदहारण के लिए--जैसे किसी व्यक्ति को पढ़ने-लिखने का शौक अधिक है, वह उसका संस्कार बन गया। उसमें पढ़ना-लिखना उसकी वासना कहलायेगी। जब कभी वह अपने संस्कार या अपनी वासना के अनुसार पढ़ने-लिखने बैठेगा, उस समय कोई मृतात्मा जिसकी भी वही वासना रही है, तत्काल उस व्यक्ति की ओर आकर्षित होगी और वासना और संस्कार के ही माध्यम से उसके शरीर में प्रवेश कर अपनी वासना की पूर्ति कर लेगी। दूसरी ओर उस व्यक्ति की हालत यह होगी कि वह उस समय का पढ़ा-लिखा भूल जायेगा। किसी भी प्रकार का उसमें अपना संस्कार न बन पायेगा।
       इसी प्रकार अन्य वासना, कामना और संस्कार के विषय में भी समझना चाहिए। हमारी जिस वासना को मृतात्माएँ भोगती हैं, उसका परिणाम हमारे लिए कुछ भी नहीं होता। इसके विपरीत, कुछ समय के लिए उस वासना के प्रति हमारे मन में अरुचि पैदा हो जाती है।
       प्रेतात्माओं के अपने  अलग ढंग हैं। वे जिस व्यक्ति को अपनी वासना-कामना अथवा अपने संस्कार के अनुकूल देखती हैं, तुरन्त सूक्ष्मतम प्राणवायु अर्थात्-ईथर के माध्यम से उसके शरीर में प्रवेश कर जाती हैं और अपनी वासना को संतुष्ट करने लग जाती हैं। इसीको 'प्रेतबाधा' कहते हैं। ऐसे व्यक्ति की बाह्य चेतना को प्रेतात्माएँ लुप्त कर उसकी अंतर्चेतना को प्रभावित कर अपनी इच्छानुसार उस व्यक्ति से काम करवाती हैं। इनके कार्य, विचार, भाव उसी व्यक्ति जैसे होते हैं जिस पर वह आरूढ़ होती है।
     कहने की आवश्यकता नहीं, इस विषय में पाश्चात्य देशों में अनेक अनुसन्धान हो रहे हैं। परामनोविज्ञान के हज़ारों केंद्र खुल चुके हैं। वास्तव में यह एक अत्यन्त जटिल और गहन विषय है जिसकी विवेचना थोड़े से शब्दों में नहीं की जा सकती।
       अच्छे संस्कार और अच्छी वासनाओं और कामनाओं वाली मृतात्माएँ और प्रेतात्माएँ तो पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से बाहर रहती हैं मगर जो कुत्सित भावनाओं, वासनाओं तथा बुरे संस्कार की होती हैं, वे गुरुत्वाकर्षण के भीतर मानवीय वातावरण में ही चक्कर लगाया करती हैं।
      इन दोनों प्रकार की आत्माओं को कब और किस अवसर पर मानवीय शरीर मिलेगा और वे कब संसार में लौटेंगी ?--इस विषय में कुछ भी नहीं बतलाया जा सकता।
       मगर यह बात सच है कि संसार के प्रति आकर्षण और मनुष्य से संपर्क स्थापित करने की लालसा बराबर उनमें बनी रहती है। वे बराबर ऐसे लोगों की खोज में रहती हैं जिनसे उनकी वासना या उनके संस्कार मिलते-जुलते हों। जो व्यक्ति जिस अवस्था में जिस प्रकृति या स्वभाव का होता है, उसकी मृतात्मा या प्रेतात्मा भी उसी स्वभाव की होती है।
       सभी प्रकार की आत्माओं से संपर्क स्थापित करने, उनकी मति-गति का पता लगाने और उनसे लौकिक सहायता प्राप्त के लिए तंत्रशास्त्र में कुल सोलह प्रकार की क्रियाएँ अथवा साधनाएं हैं। पश्चिम के देशों में इसके लिए 'प्लेन चिट' का अविष्कार हुआ है। मगर यह साधन पूर्ण सफल नहीं है। इसमें धोखा है। जिस मृतात्मा को बुलाने के लिए प्रयोग किया जाता है, वह स्वयं न आकर, उसके स्थान पर उनकी नक़ल करती हुई दूसरी आस-पास की भटकने वाली मामूली किस्म की आत्मा आ जाती हैं। मृतात्मा यदि बुरे विचारों, भावों और संस्कारों की हुई तो उनके लिए किसी भी साधन-पद्धति का प्रयोग करते समय मन की एकाग्रता की कम ही आवश्यकता पड़ती है मगर जो ऊँचे संस्कार, भाव-विचार और सद्भावना की आत्माएं हैं, उनको आकर्षित करने के लिए अत्यधिक मन की एकाग्रता और विचारों की स्थिरता की आवश्यकता पड़ती है। क्योंकि एकमात्र 'मन' ही ऐसी शक्ति है जिससे आकर्षित होकर सभी प्रकार की आत्माएं स्थूल, लौकिक अथवा पार्थिव जगत में प्रकट हो सकती हैं।
       सबसे पहले यौगिक क्रियाओं द्वारा अपने मन को एकाग्र और शक्तिशाली बनाना पड़ता है। जब उसमें भरपूर सफलता मिल जाती है, तो तान्त्रिक पद्धति के आधार पर उनसे संपर्क स्थापित करने की चेष्टा की जाती है। भिन्न-भिन्न आत्माओं से संपर्क स्थापित करने की भिन्न भिन्न तान्त्रिक पद्धतियाँ हैं।

Tuesday, 5 June 2018

प्रापत्

: The nature of the properties of your work we अकर्ता similar mind भी'मै-मै'करता is, अज्ञानवश we आपको'मै-मै'करके idea to assume. यह'मैं'की Maya, heart in the rising and brain in mind like active is. We you know the heart on healthy living, self-featured मे.तब मनरूपी I effect is but we forget your you मनरुपी'मैं'मानकर idea seem to be हैं.केवल consider not only do, but its all actions of the subject also assume हैं.इससे deeds of bondage becomes stronger. The world in healthy, silent, निर्विचार man how many who really heart add located? If the original state of the know should then the state in remain to try to lying while it is quite comfortable है.मै-I speak time your hand we heart are not on the forehead. It I, soul है.अस्तित्व sense इसीका is and monolithic है.मन I, I body am this as in would है.अनेक body so many I only are on the existence of sense many not's monolithic है.मन to see a side by existence sense focus on should be its ubiquity of experience automatic .अस्तित्व sense of a deprived of not है.प्रकृति cover and विक्षेप also exist realization of the support of the need for there is. It sat chit enjoy है.निर्गुण Niranjan abstract Brahman we sagun realizing Brahman it aren't हैं.उससे unity सारुप्य, proximity, सायुज्य etc. Salvation featured in decreasing her for सोहम् (I he'll) announced can not be. Existence sense each only for-see it, I उसीका experience to do. Its existence of a sense of depth in the land for every man free है.यही आत्मयोग is. It except for the mind of मैमेरा of Maya on gets stuck है.मै अरु more Tor तें माया.जेहीं just कीन्हे creatures निकाया .. heart of the original source of which I नामका idea arise and mind as in the brain in becomes active है.यही he Maya which hand in the US your cool, silent, निर्विचार आत्मस्वरुप forget and wandering are भवाटवी in. It I, I body I-the idea, this recognition, the trust as in would therefore I am who I-it turns out necessary is so that we self self as in the same live, not मायिक mental I as. Mind add to I and my such two considering moving are false subject become we मैमेरा, मैमेरा seem to be हैं.जहां मैमेरा there तूतेरा, he, they are he distinguish also come as these all the secrets of the original add to see this body I-consider it mainly serves this idea US to ask do not need to understand, we your forget it tame add to become and mechanically मैमेरा, तूतेरा etc. start. Of course cool-silence, inexpressible its nature to live this Maya to come out होगा.इसके to see who am I where am I where I am-this question and then nishabd existence as add to experience the heart is where the body to see my of Maya rising is. Or start of the same we हृदयस्थ silence connected and मनरुपी see my thoughts ignore it. What happens when mind मैरहित is? Then mind, don't mind lives, peace ह़ो is then problem is not so that the solution to find पडे.यह mind as मैमेरा the main problem is that छोटीमोटी many problems arise हैं.फिर problem solve the problem finds है.समाधान how to get? Idea write a problem है.विचार when opinion solution by will find the solution not सकता.विचार not for the problem don't are problem, not for त़ो solution to find no पडता.सिर्फ Karma live action so will ही.मैमेरा, तूतेरा idea don't are so all mankind a by Karma add to look should be, and everything is positive, creative featured in began. All human beings healthy, हृदयस्थ, आत्मस्थ through each other to cooperate look executive that the main purpose. "You have to ask yourself the question who am i? This investigation will lead in the end to the discovery of something within you which is behind the mind.solve that great problem and you will solve all other problems. '' The thought" i "rises first.one would discover that it rises in the heart.that is the place of the mind's origin. Even if one thinks constantly" i-i "one will be led to that place. Of all the the thoughts that arise in the mind, the" i "thought is the first. It is only after the rise of this, that other thoughts arise." -sri ramana maharshi. I see the other ideas in messed up to see the negative as is. Only I-I just thought should be so it's heart in brings जहां'स्व'है and मै'नहीं then it I creative and welfare featured होताहै. What I is right between self found know what I अकल्याणकारी is जो'स्व'से different करके'पर'से dam give her do reap for. Anything negative is not. Gita parity in the safety of ways to find the says. But parity where? Complaint the same a complaint is stuffed, resisting as opposed full we say-because what? Why arrogance so ego must large negative thing to be चाहिए.उसका good to be नहीं.अब him struggle. But what ego सचमे negative (negative)? Creation the process of building in the ego Rudra have been told. If all forgetting only I see the thought should be so it I-I self, the original got away. Ego is where? Heart in the search should be so it's find get नहीं.इसका means that is not the same, we negative treat him struggle are हैं.इसका results what? Ego, recognize what recognition negative is? Recognition negative values will then recognition how made during the process we understand not only will, write to complicate will. Nature in flowers are also, Forks also हैं.जैसा flowers study so of thorns अध्ययन.अध्ययन to thorns is Costa नहीं.कोसता then study add to Buddy drawback longer leads. Any thing to understand if it is very important that it is like so users should be, understood should be, not by your side रागद्वेष together seen should be. Such see if रागद्वेष full process part of some looks good, melody is some felt bad malice happens. Such as mercy suits her passion is, However, mercy also nature and melody भी.ईर्ष्या bad look, malice होताहै but envy also nature, hatred too nature है.प्रकृति properties of the nature of the nature and nature good or bad होता.गुण, properties, don't blame. Quality is not fault. Quality is not offence. Blame believe it negative tell, nature to understand him negative or positive tell not. Virtually anything negative not if we ask-any negative thing, negative no means we her negative value only taken and now are saying negative, negative is not negative, negative is not. Anything negative, not the truth that then his study known be anything positive not है.नकारात्मक assuming it to resist the positive of greed, positive need arise है.परंतु anything negative not, which is something like the same see and understand the त़ो now positive what importance looking for? Learn so it will know that the problem in the same solution, question in the North. Such as depression is then depression negative value take depression depth add to descend not possible होता.समझने for patience guestbook with depression stay the same happens. It तमोगुणी instinct, the nature of what is this what is, what kind of experience in the leaps? Him to understand it dissolved is negative understanding नहीं.हर्ष need to understand the depression enemy to be the same! And the joyful when will try as depression increasing जायेगा.अतः gladness, depression not measure है.उपाय is wait, wait, cool, stay healthy heart on, your within easy-to your original on staying depression welcome to do, it come two and treat as he है.नकारात्मक believe it where is? His support do not's nature, the nature of the property is just his nature, his specialty है.ऐसे in except parity and a measure not lives. We this question can not afford-nature such why why question नहीं.सवाल we nature without resistance, without the support such is the same view and can understand whether or not? It male है.गीता on why-nature add located guy only सुखदुखों of experiencer है.'रागद्वेष of power in should not be as the main obstacle है.'पुरुष means चेतना.अब consciousness senses in or unconscious the difference wears we he consciousness हैं.अगर we only रागद्वेष of power in ie unconscious, then we things such as are the same see, do not understand सकते.यदि we रागद्वेष the hand in do not that senses in can we रागद्वेष also can understand them without negative बताये.रागद्वेष negative नहीं.नकारात्मक only when we his hand on through their opposition, support are हैं.तात्पर्य is-worldly the unconscious but seeker also unconscious's opposes है.गीता रागद्वेष the hand in do not having to say, not to resist लिये.साधक conflicts and his practice in the baffle her attention divided is your goal से.संसारी justification-supports (जस्टिफिकेशन) which Gita to say wears is इच्छाद्वेषजन्य सुखदुखादि duality as attachment to the entire creature extremely अज्ञता achieving are. "रागद्वेष to tame add to be the main obstacle told the beginning रागद्वेष to understand the need them without negative मानें.यही no, we his hand on why are also understand it without any negative बताये.तब it can be understood why a man natural process add to Buddy easily रागद्वेष of power in happens and deviates. For US special know thing is that what is the problem? The problem of the study is to see him to understand without his opposition, support retweeted, without him escape made, without him good or bad declared, without resistance made-like so experience let's witness है.साक्षी, कर्ताभोक्ताभाव also not bad tells. बुराभला tell means own रागद्वेष of power in the. Consciousness unconscious then किसीको negative treat him release of the positive treat her tried to get are we your you उखडे live. But properties then come go live हैं.जो within our store is the same appears and which appears that the other two suppress gives है.ऐसे in सत्वरजतम three properties on when which exists with him while he understand the only way remains then self-format, properties of free gets है.जबर्दस्ती release try to add to success not सकती.योग success can even though he Raja yoga, Hatha yoga, ज्ञानयोग, bktiyog, karmayoga is featured in हो.बुद्धियोग may also है.बुद्धि micro through the true to life takes. Mean much a problem is नहीं.जो her negative (negative) feel the same problem है.ध्यान it should that negative accept the habit of the negative not believe, but it is to understand that we end of negative believe why you? If so रागद्वेष to tame add to be caused by what we रागद्वेष and his hand on the process of being can understand without negative considered? Just a scientific as become wears it nature, it's creation such as well, we have it's not created However we understand it must can without it negative बताये.
समझ, imprudence not है.नासमझी, negative telling understand tries and complicated are है.समझ for much anything negative not है.इसीलिए he understood, power, wisdom he opposed to understand the rather than to resist के.बाकी protest against series of the endless her ever end not only comes. Understanding introverted is his your featured in think every thing को.वह introverted is, स्वमुखी why not, which is the universe in the same object in the." You are the world ". Re-" second-second "by why रागद्वेष of power in the should and target wandering to run away transported should be!

संस्कृत

*संस्कृतभाषा स्वयंशिक्षा की उत्तम पद्धती  (४)*
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संस्कृत लिखने के लिये देवनागरी लिपी का उपयोग करते हैं!  इसमें कुल ५२ अक्षर हैं, जिसमें १४ स्वर और ३८ व्यंजन हैं। अक्षरों की क्रम व्यवस्था (विन्यास) भी बहुत ही वैज्ञानिक है। स्वर-व्यंजन, कोमल-कठोर, अल्पप्राण-महाप्राण, अनुनासिक्य-अन्तस्थ-उष्म इत्यादि वर्गीकरण भी वैज्ञानिक हैं।

संस्कृत की एक शास्त्र शुद्ध भाषा है। भाषानां जननी संस्कृत है। यह विश्व की सबसे पुरानी उल्लेखित भाषा है।

मित्रों आज १०८ उपनिषदों का एक गद्य पद्दात्मक सिर्फ ४० मंत्र के ब्रह्मद्रष्टा स्वयं का अनुभव समझाते हैं! शुक्ल यजुर्वेद के इस निरावलंब उपनिषद मे स्वंय निर्मित ४१ प्रश्र और उनके उतर संस्कृत भाषा शिक्षा के लिये उपयुक्त हैं!

                 !!  शान्तिपाठ: !!
ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूरणात्पूर्णमुदच्यते !
     पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते !!
            ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: !!

पहिला मंत्र -- मंगलाचरण का हैं!
शिव की गुरू वंदना और स्तुति, कौन संन्यासी - योगी! कैवल्य पद (मोक्ष) किसे प्राप्त होगा यह समझाया हैं !

तीसरा मंत्र ---- यहाँ संपूर्ण ४१ छोटे प्रश्र हैं!
१) किं ब्रम्ह!      ब्रम्ह क्या है? 
    उत्तर - चैतन्यं ब्रम्ह!        चैतन्य स्वरुप ब्रम्ह हैं!

२) का ईश्वर:!       ईश्वर कौन  है?     
     उत्तर - ईश्वर ब्रम्हादीना हैं!
 
३) को जीव:!       जीव कौन  है?     

४) का प्रकृती: !     प्रकृती क्या है?   

५) का: परमात्मा !    परमात्मा कौन  है?     

६) को ब्रम्हा !           ब्रम्हा कौन  है? 

७) को विष्णु: !          विष्णु कौन  है? 

८) को रुद्र: !             रुद्र कौन  है? 

९) का इंद्र: !              इंद्र कौन  है? 

१०) का: शमन: !       यम कौन  है? 
                 शमन: = यम

११) क: सूर्य: !            सूर्य कौन  है? 

१२) कश्र्चन्द्र: !          चन्द्र कौन  है? 

१३) के सुरा: !            देवता कौन  है? 

१४) के असुरा: !        असुर कौन  है? 

१५) के पिशाच्च: !     पिशाच्च कौन  है? 

१६) के मनुष्या: !        मनुष्य क्या  है? 

१७) का: स्त्रिय: !        स्त्रिय क्या  है?

१८) के पश्र्वादय: !     पशु आदि क्या  है?

१९) किंवा स्थावरम् !   स्थावर (जड) क्या  है?

२०) के ब्राह्मणादय: !   ब्राह्मण आदि क्या  है?

२१) का जाति: !          जाति  क्या  है?

२२) कि कर्म !             कर्म क्या  है?

२३) किमकर्म !            अकर्म क्या  है?

२४) किं ज्ञानम् !           ज्ञान क्या  है?

२५) किंमाज्ञानम् !       अज्ञान क्या  है?

२६) किं सुखम् !           सुख क्या  है?

२७) किं दु:खम् !           दु:ख क्या  है?

२८) क: स्वर्ग !              स्वर्ग क्या  है?

२९) को नरक: !           नरक क्या  है?

३०) को बन्ध: !            बंधन क्या  है?

३१) को मोक्ष: !             मुक्ति क्या है?

३२) क उपास्य:  !         उपास करने योग्य कौन है?

३३) क: शिष्य: !            शिष्य कौन है?

३४) को विद्वान् !            विद्वान् कौन है?

३५) को मूढ: !               मूर्ख कौन है?

३६) किमासुरम् !            असुरत्व क्या है?

३७) किं तप: !               तप क्या  है?

३८) किं परमं !               परमपद किसे कहते है?

३९) किं ग्राह्यम् !              ग्रहनिय क्या है?

४०) किं अग्राह्यम् !             अग्रहनिय क्या है?

४१) क: संन्यासी !             संन्यासी कौन है?

यह प्रश्र्न संस्कृत भाषा के आभ्यस हेतू लिखे है! ऐसे  उत्तम उदाहरण अनेक उपनिषदों मे उपलब्ध है! ज्ञान-विज्ञान सहित सृष्टी के रहस्य भी आपको प्राप्त होगे!

Friday, 25 May 2018

नास्आस््

*नास्तिक मत खण्डन*
*____________________*

*नास्तिक*

यदि वह ईश्वर अनेक नहीं तो वह व्यापक है या एक देशी?

*आस्तिक*

वह सर्वव्यापक है एकदेशी नहीं।यदि एक देशी होता तो अनेक विध संसार का पालन पोषण एवं संरक्षण कैसे कर सकता ?

*नास्तिक*

यदि वह सर्वव्यापक है तो पुनः दिखाई क्यों नहीं देता।

*आस्तिक*

दिखाई न देने के कई कारण होते हैं जैसे सांख्या-कारिका में कहा है-
*अतिदूरात सामीप्यादिन्द्रियघातान्मनो ऽनवस्थनात् ।*
*सौक्ष्म्याद् व्यवधानादभिभवाद् समानाभिहाराच्च ।*

(१) दिखाई न देने का प्रथम कारण है अति दूर होना जैसे लन्दन या अमेरिका दूर होने से दिखाई नहीं देते परन्तु दिखाई न देने पर भी उनकी सत्ता से इन्कार नहीं हो सकता।

(२) दूसरा कारण है अति समीप होना, अति समीप होने से भी वस्तु दिखाई नहीं देती जैसे आंख की लाली या आंख का सुरमा आंख के अति समीप होने पर भी दिखाई नहीं देते। अथवा पुस्तक आँख के अति समीप हो तो उसके अक्षर दिखाई नहीं देते।

(३) इन्द्रिय के विकृत या खराब होने पर भी कोई वस्तु दिखाई नहीं देती जैसे आंख दुखने पर या आंख के फूट जाने पर यदि कोई अन्धा कहे कि सूर्य चन्द्रादि की कोई सत्ता नहीं,तो क्या यह ठीक माना जायगा ।

(४) अति सूक्ष्म होने पर भी कोई वस्तु दिखाई नहीं देती, जैसे आत्मा,मन,बुद्धि,परमाणु,भूख,प्यिस,सुख-दुःख,ईर्ष्या,द्वेष आदि।

(५) मन के अस्थिर होने पर भी कोई वस्तु दिखाई नहीं देती जैसे कोई व्यक्ति सामने से होकर निकल जाय, तो उसके विषय में पूछने पर उत्तर मिलता है कि मेरा ध्यान उस ओर नहीं था।इस लिये मैं नहीं कह सकता कि वह यहाँ से निकला है या नहीं।

(६) ओट में रखी या बीच में किसी वस्तु का पर्दा होने से भी वस्तु दिखाई नहीं देती जैसे दीवार के पीछे रखी वस्तु या ट्रंक के अन्दर रखी वस्तु ।

(७) समान वस्तुओं के सम्मिश्रण हो जाने या परस्पर खलत मलत हो जाने पर भी वस्तु दिखाई नहीं देती जैसे दूध में पानी,तिलों में तेल,दही में मक्खन,लकड़ी में आग।इसी प्रकार परमात्मा सब वस्तुओं में व्यापक होने पर भी अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण आंखों से दिखाई नहीं देता।परन्तु ––
जिस तरह अग्नि का शोला संग में मौजूद है।
इस तरह परमात्मा हर रंग में मौजूद है।

(८) अभिभव से अर्थात् दब जाने पर भी कोई वस्तु दिखाई नहीं देती यथा दिन को तारे सूर्य के प्रकाश में दब जाने के कारण दिखाई नहीं देते अथवा आग में पड़ा लोहा अग्नि के प्रभाव से दिखाई नहीं देता।परन्तु ज्ञान की आंख से वह दिखाई देते हैं―ऐसे ही परमात्मा के दर्शन के लिए भी अन्दर की आंख की आवश्यकता है।किसी ने ठीक कहा है कि―
*कहाँ ढूंढ़ा उसे किस जा न पाया,कोई पर ढूंढने वाला न पाया।*
*उसे पाना नहीं आसां कि हमने,न जब तक आप को खोया न पाया।*

*नास्तिक*

यदि वह सब जगह सर्वत्र व्यापक है तब तो मल-मूत्र,गन्दगी,कूड़े-करकट में भी उसका वास मानना होगा,इस प्रकार तो दुर्गन्ध से उसकी बड़ी दुर्गति होगी।

*आस्तिक*

आपका यह विचार ठीक नहीं क्योंकि सुगन्ध दुर्गन्ध इन्द्रियों द्वारा प्रतीत होती है और परमात्मा इन्द्रियातीत अर्थात् इन्द्रियों से रहित है इसलिये उसे सुगन्ध दुर्गन्ध नहीं आती।
दूसरे जो वस्तु अपने से भिन्न दूसरे स्थान पर या अपने से पृथक बाहर दूर हो उससे सुगन्ध दुर्गन्ध आती है जो वस्तु अपने ही अन्दर हो उससे सुगन्ध दुर्गन्ध नहीं आती। जैसे पाखाना अपने अन्दर हो तो दुर्गन्ध नहीं आती परन्तु बाहर पड़ा हो तो दुर्गन्ध आती है ।इसी प्रकार यह सारा संसार  और उस की सब वस्तुएँ भी ईश्वर के भीतर विद्यमान हैं इसलिये उसे सुगन्ध दुर्गन्ध नहीं आती ,न ही उस इनका कोई प्रभाव होता है ,कठोपनिषद् में ठीक कहा है―
*सूर्यो यथो सर्वलोकस्य चक्षुनं लिप्यते चाक्षुषै र्बाह्यदोषैः,*
*एकस्तथा सर्व भूतान्तरात्मा न लिप्यते लोक दुःखेन बाह्य ।*―(कठो अ २-वल्ली २-श्लोक ११)

अर्थात्―जिस प्रकार सूर्य सब संसार की चक्षु है,परन्तु चक्षु के बाह्या दोषों से प्रभावित नहीं होता, इसी प्रकार सब प्राणियों का अन्तरात्मा लोक में होने वाले दुःखों से लिप्त नहीं होता क्योंकि वह सब में रहता और उसमें सब रहता है।संसार में रहते हुए भी वह सबसे बाह्य अर्थात् सब संसार से पृथक है,अर्थात् लिप्त नहीं है अलिप्त है।

*नास्तिक*

जब वह स्वयं इन्द्रियरहित तथा इन्द्रियों से न जानने योग्य है तो उसका ज्ञान होना असम्भव है,पुनः जानने का प्रयत्न व्यर्थ है ?

*आस्तिक*

उसके जानने का प्रयत्न करना व्यर्थ नहीं क्योंकि ईश्वर की सत्ता का उसके विचित्र ब्रह्माण्ड और उसमें विचित्र नियमानुसार कार्यों को देखकर बुद्धिमान,ज्ञानी,तपस्वी भलीभांति अनुभव करते हैं।इसके अतिरिक्त प्रभु प्राप्ति का साधन इन्द्रियां नहीं अपितु जीवात्मा है, योगाभ्यास आदि क्रियाओं द्वारा जीवात्मा उनका प्रत्यक्ष अनुभव करता है तथा आनन्द का लाभ करता है―कठोपनिषद् में ठीक कहा है―
*एको वशी सर्व भूतान्तरात्मा, एकं रुपं बहुधा यः करोति,*
*तमात्मास्थं येऽनु पश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतंनेतरेषाम् ।*
―(कठो अ २. वल्ली रचो १२)

अर्थात्―वह एक,सब को वश में रखने वाला,सब प्राणियों की अन्तरात्मा में स्थित है अपनी आत्मा में स्थित उस परमात्मा का जो ज्ञानीजन जन दर्शन लाभ करते हैं वे परमानन्द को प्राप्त करते हैं।

*नास्तिक*

ईश्वर को मानने से मनुष्य की स्वतन्त्रता जाती रहती है,इसलिये मानना व्यर्थ है ?

*आस्तिक*

ईश्वर को मानने तथा उसकी उपासना करने का अन्तिम फल मुक्ति है।मुक्ति स्वतन्त्रता का केन्द्र है जहाँ सब प्रकार के बन्धन टूट जाते हैं।अतः ईश्वर के मानने से मनुष्य की स्वतन्त्रता के साथ दुःखों की समाप्ति तथा आनन्द की प्राप्ति भी होती है इसलिए उसका मानना तथा जानना आवश्यक है, व्यर्थ नहीं।

*नास्तिक―*

ईश्वर को अज्ञेय अर्थात् न जानने योग्य कहा है तो उसके जानने का परिश्रम करना व्यर्थ है ।

*आस्तिक*

सृष्टि और उसके विविध पदार्थों तथा उसमें काम कर रहे अनेक विध नियमों को देखकर उसके रचयिता का बोध सरलता से हो जाता है।जैसे आकाश,वायु,अणु,परमाणु आदि इन्द्रिय रहित हैं।परन्तु उनका निश्चय बुद्धि से हो जाता है,इसी प्रकार शुद्धान्तःकरण द्वारा प्रभु का ज्ञान हो जाता है।इसमें किसी प्रकार की कोई बाधा नहीं, परिश्रम की आवश्यकता है।

*नास्तिक*

ईश्वर को सगुण कहा गया है प्रत्येक सगुण वस्तु नाशवान होती है।इसलिये ईश्वर को भी नाशवान मानना पड़ेगा ।

*आस्तिक*

प्रत्येक सगुण वस्तु नाशवान् होती है यह कोई नियम नहीं,जब सत्व,राजस्,तमस् गुणवाली प्रकृति ही नाशवान् नहीं।
तो ईश्वर सगुण होने से कैसे नाशवान् माना जा सकता है।ईश्वर न्याय,दया,ज्ञानादि गुणों से सगुण और अजर,अमर,अजन्मा आदि होने से निर्गुण कहाता है

ईश्वर है या नहीं?

संसार में ईश्वर है मानने वाले बहुत लोग हैं, परन्तु नास्तिक लोगों का मानना है कि ईश्वर नाम की कोई सत्ता या शक्ति नहीं है और न उसकी कोई आवश्यकता है।

इस सोच का आधार है कि ईश्वर किसी को दिखाई नहीं पड़ता है। ईश्वर को न कोई देख पाया है, न छू सका है, न सुन सका हैं, न ही सूंघ सका।

*प्र. - वह इन पाँचों इन्द्रियों से भी नहीं दिखाई देता। अतः वह ईश्वर जो आप कहते हैं। वह नहीं हो सकता।*

उ.- इन पाँच इन्द्रियों के अलावा मन और बुद्धि भी है।

*प्र. - अरे भाई! आज तक आपने कभी सुना है कि यह व्यक्ति देखो मन से अथवा बुद्धि से देखता है।*

उ.- आप जिसे ‘‘देखना’’ मानते हो, वही ‘‘केवल देखना’’ नहीं होता, देखना का अर्थ जानना भी होता है। अब इसे उदाहरण से देखते हैं। जब कभी हम बातों को भूल जाते हैं, तब आँखें बन्द कर विचार करते हैं और झट से याद आने पर कहते हैं- मैंने विचार कर देखा। वास्तव में वही सही है।

एक प्रयोग और देखिये- अरे भाई! आप एक बार अनुमान करके तो देखो, आपको पता लगेगा। यहाँ भी ‘‘देखो’’ शब्द का प्रयोग ‘‘जानो’’ अर्थ में ही हुआ है। इससे पता चलता है कि बहुत वस्तुएँ ‘‘मन एवं बुद्धि’’ से भी जानी जाती है। देखना का प्रयोग जानने के अर्थ में भी होता है न कि मात्र आँखों से प्रत्यक्ष में।

*प्र. - तो मन से या बुद्धि से तो जाना जाना चाहिये परन्तु ऐसा भी तो नहीं।*

उ.- बुद्धि से तो अनुमान कर ही सकते हैं। बिना अनुमान किये ज्ञान नहीं हो सकता। अविद्या दूर करना चाहिये। जब अविद्या का नाश हो जावेगा तब मन के माध्यम से आत्मा तक और आत्मा से ईश्वर तक पहुँच सकेंगे।और जैसे भोजन सामने रखा है, पर उसे ग्रहण करने का प्रयत्न यदि न किया जावे, तो भूख नहीं हट सकती। उसी प्रकार ईश्वर को जानने के लिए प्रयत्न की आवश्यकता है।

*प्र. - वह प्रयास किस प्रकार से करें?*

उ.- जैसे आप धुएँ को देखकर अग्नि का अनुमान अथवा पुत्र को देखकर जन्मदाता का अनुमान करते हैं और जान लेते हैं कि यह ज्ञान सही होता है। जहाँ-जहाँ धुआँ होता है, वहाँ-वहाँ आग होती है।

इसी प्रकार- जो-जो कार्य होता है, उसका कारण अवश्य होता है। और कोई भी कार्य है तो वह नष्ट भी होता है। आपने किसी घर को बना देखा, तो आपने अनुमान किया कि इसका बनाने वाला कोई अवश्य ही है। यह सृष्टि एक कार्य है क्योंकी यहां जो चीज बनाई गई वह नष्ट होती भी दिखाई पड़ती है। कार्य का करने वाला भी आवश्यक है, अब वही कौन है, यह भी अनुमान से सिद्ध होता है कि इस संसार को निर्माण करने वाला एक स्थान विशेष पर रहने वाला या मूर्ख नहीं हो सकता, अतः ईश्वर का अनुमान होता है।

*प्. - यह संसार तो अपने आप ही बना है।*

उ.- अब आप पहले सिद्धान्त के विरुद्ध जा रहे हैं।पहले आपने स्वीकार किया था कि जो बना होता है, उसे बनाने वाला होता है।

*प्र. - क्योंकि यदि ईश्वर ने भी यदि इस संसार को बनाया है, यह कहे तो प्रश्न होगा कि ईश्वर को किसने बनाया?*

उ.- जो कार्य होता है, वह नष्ट होता रहता है और जो नष्ट होता हुआ, कोई भी कार्य दिखाई पड़ता है, उसको बनाने वाला कोई अवश्य ही होता है और ईश्वर नष्ट नहीं होता। अतः उसे बनाने वाला कोई भी नहीं हुआ, न है और न होगा।

*प्र. - तो वह ईश्वर कहाँ है?*

उ.- वह सर्वत्र कण-कण में है। तभी तो उसने इतनी बड़ी रचना की है एक स्थान पर बैठकर ऐसा करना सभव नहीं, और वह सब जगह है, अतः वह सब जानता है। और केवल सृष्टी केवल बना दी गई है ऐसा नहीं इसकी व्यवस्था यानि रखरखाव भी आवश्यक है और व्यवस्था का काम यदि ईश्वर एक स्थानपर बैठकर करे तो जहां वह नहीं रहेगा वहां की व्यवस्था कैसे चलेगी? अतः ईश्वर सब जगह है।

*प्र. - तब तो प्राकृतिक आपदाएँ नहीं आनी चाहिये। क्योंकि ईश्वर सब जगह पर है, अतः उसे ध्यान देना चाहिये कि ये आपदाएँ लोगों को कष्ट पहुँचायेगी उनका कार्य करना भी व्यर्थ होगा, उसे तो इस प्रकार का निर्माण करना चाहिये कि कोई भी आपदाएँ आने ही न पावें।*

उ.- यह सब ईश्वर की व्यवस्था के अनुसार होता है या नियमानुसार कहो। क्योंकि ईश्वर को कर्मफल भी तो देने हैं। अतः इसमें हमारे कर्म ही कारण होते हैं। इससे अतिरिक्त, यह प्रदूषण करने का प्रभाव या परिणाम भी हो सकता है। जैसे कोई मनुष्य एक यन्त्र बनाता है और उसमें विद्युत् को सहन करने की क्षमता एक क्षमता तक ही होती है। यदि उसमें कोई अधिक विद्युत् दे देवें, तो वह जलकर नष्ट ही होगा। इसी प्रकार यह पृथ्वी भी एक सीमा तक ही सहन कर सकती है या सह सकती है। उसके पश्श्चात् जो होता है, वह हम देखते ही हैं। यदि व्यवस्था को कोई अव्यवस्था रूप देना चाहे, तो उसमें ईश्वर को क्या दोष?

*प्र. - यदि ईश्वर है और आप उसे मानते हैं, तो बताइये कि आज पूरे विश्व में इतने दुष्टकर्म हो रहे हैं परन्तु ईश्वर तो कुछ भी नहीं करता?*

उ.- ईश्वर को क्या करना चाहिये, आप ही बताइये?

*प्र. - उसे शरीर धारण करना चाहिये और दुष्टों की समाप्ति कर देनी चाहिये।*

उ.- यदि वह शरीर धारण करे तो विश्वमें अन्य स्थानों का ध्यान कौन देगा? उनके कर्मों का ज्ञान कैसे होगा और ज्ञान नहीं होगा तो उनका फल भी नहीं दे सकेगा।

*प्र. - तो सब जगह पर होते हुए, कुछ भी तो नहीं करता?*

उ.- आपको कैसे पता कि वो कुछ भी नहीं करता?

*प्र. - क्या करता है, बताईये?*

उ.- वही तो सभी के कर्मों का उचित फल देता है। ये अलग-अलग प्रकार के जानवर हैं, वे सब इसी के व्यवस्था के अन्तर्गत है और लोग कर्म करने में स्वतन्त्र है और ईश्वर ने लोगों को स्वतंत्र छोड़ रखा है केवल कर्मनुसार फल देना निश्चित कर रखा है।

*प्र. - ईश्वर कैसे मिलेगा?*

उ.- यह जो हम लोग पाप कर्म करते हैं, उसके कारण को (मिथ्या ज्ञान) को हटा दें तो वह परमात्मा प्राप्त होता है।

Monday, 21 May 2018

मोहक्षयतेईति

See, if there is an opinion in satsang, then ignorance should come, knowledge should come, and if you feel like it will not come, then you will not have any desire, and if you get hurt, then there is no devotion to the world.
Now Maya "me and mine" is just the illusion. "I" are two, true and false, true, I am Brahman, false is I Maya.
Just as when you see the dream, then you are also dreaming, you also see in the dream itself. No matter how dreaming, you are in your dream, you see only you, you can not dream yourself if you do not see yourself in a dream.
So in these two, the one who sees me is Brahma, which I see is Maya. In other words, I am illusory, I am Brahman; Knowing, seer I am Brahma. The arrogant of the subtle, the knower is Maya.
And when this body is the only Maya, then I also have Maya. Maya Mane, which looks but is not at all.
As I have two distinctions, Maya has two distinctions, Vidya and Aviva Maya Avidya conflicts with God; There are two types of Maya, but as long as there is ignorance, there is a need for knowledge. Unless the disease seems to be true, then the drug is true.
Vidya Maya created the world, Avidya made me-her. By behaving in the middle, knowing that all is God, is not mine, I have to obey all the work, just to believe. Like a thorn in the foot, it is removed from the other thorn, both are given to the foreck.
This is all the God's, the one who rides in God, does not live both of me and mine, he gets rid of both Maya, Maya does not save. The trunk was cut.
The multi-faceted mobilization mobilized for body lifting, which benefits our lives, is the culmination of happiness.
But the experience of beyond the juice, the smell of the touch, which connects the soul with the divine in which the system is reduced to the sari.
We forget our physical experience and begin to direct the divine in the soul. Every letter starts to agitate in its memory, and the unkha laughs. Unknowing starts crying, the world starts to think we are crazy, it is joy.
The desire to get something is Maya's biggest weapon,
.Wish to get something in spirituality  is Maya's biggest weapon. Without moving it one step can not move forward.
As long as we want to get something, we do not get anything. Wishing to get something is a mirage, nobody gets anything.
Everything belongs to God and everything is "He". We have to be dedicated to ourselves.
Everything that got devoted to God has got it. Others do not get anything other than disappointment.

Everything is mixed. If there is something worthwhile, then it is "he" which is not available after getting it. "He" does not get, he has to be devoted himself. Doing something "he" does not get anything, something has to happen.
 "She" is "everything" itself. God is a stream, let him flow through it. Do not break any barriers.
Then we will see that the flow is ours.
Nothing will happen with things, it is a sacrifice in which the ego of self has to be sacrificed.
We should just have a strong continuous and ultimate love, nothing else. All the guidance themselves are divine.
"To the theologian, the paradise, the hero to his life, the spouse is to be his wife and the whole world feels like a whole grain of grass.

That is, the one who knows his nature is like a straw to him. For a warrior, his own life is despicable.
For the great person who has conquered all his wishes, it is trivial for women and subject. And for those who have no attachment in their mind, then this entire universe is trivial.
Some psychologists and philosophical minds do not accept any different existence. They believe that this is either the function of the brain or the nervous system, otherwise the other physical action Vedanta does not support this approach.
According to Vedanta, the mind, the soul and the gross body are three distinct components of the human personality.
             In Vedanta, the mind is said to have the heart, which literally means 'internal means' or 'internal functioning system', it has been said as an interaction so that the difference between the mind, the senses and the minds can be made clear.
 The gross world of these senses is direct contact. There are four aspects of conscience- mind, mind, intellect and ego.

Moksha मोक्ष् path (according to Vedic tradition)